पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/१०७

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१०८ हाथ से मानसरोवर लौंग डाली और कड़ाह से निकालकर एक मटकी में रख दिया। उसकी सौंधी सोंधी सुगध से सारा घर महक रहा था। महरी चौका-बर्तन करने आई, तो उसने चाहा कि मटकी चौके से उठाकर छींके या आले पर रख दे । पर संयोग की बात, उसने मटकी उठाई, तो वह उसके छूटकर गिर पड़ी। सारा घी बह गया। धमाका सुनकर रामेश्वरी दौड़ी, तो महरी खड़ी रो रही थी, और मटकी चूर-चूर हो गई थी। तड़पकर बोली-मटकी टूट गई ? मैं तेरी तलब से काट लूगी। राम-राम ! सारा घी मिट्टी में मिला दिया ! तेरी आँखे फूट गई थीं क्या ! या हाथों में दम नही था ! इतनी दूर से मँगाया, इतनी मिहनत से गर्म किया ; मगर एक बूद भी गले के नीचे न गया । अब खड़ी बिसूर क्या रही है, जा अपना काम कर । महरी ने आँसू पोंछकर कहा-बहूजी, अब तो चूक हो गई, चाहे तलब काटो, चाहे जान मारो । मैंने तो सोचा-उठाकर आले पर रख दूं, तो चौका लगाऊँ। क्या जानती थी कि भाग्य में यह लिखा है । न जाने किस श्रभागे का मुंह देखकर उठी थी। रामेश्वरी-मैं कुछ नहीं जानती, सब रुपये तेरी तलब से वसूल कर लूंगी। एक रुपया जुरमाना न किया तो कहना । महरी-मर जाऊँगी सरकार, कहीं एक पैसे का ठिकाना नही है । रामेश्वरी-मर जा या जी जा, मैं कुछ नही जानती । महरी ने एक मिनट तक कुछ सोचा और बोली-अच्छा काट लीजि- एगा सरकार । आपसे सबर नहीं होता; मैं सबर कर लूँगी । यही न होगा, भूखों मर जाऊँगी। जीकर ही कौन-सा सुख भोग रही हूँ कि मरने को डरूँ। समझ लूंगी, एक महीना कोई काम कहीं किया। आदमी से बड़ा-बड़ा नुक- सान हो जाता है, यह तो घी ही था। रामेश्वरी को एक ही क्षण में महरी पर दया आ गई । बोली-तू भूखों पर जायगी, तो मेरा काम कौन करेगा। महरी-काम कराना होगा, खिलाइएगा, न काम कराना होगा, भूखों मारिएगा । आज से आकर आप ही के द्वार पर सोया करूँगी। रामेश्वरी-सच कहती हूँ, आज तूने बड़ा नुकसान कर डाला।