माता का हृदय , दौड़-दौदकर हुभम बजा लाती थी। वह माधवी थो, जो इस समय मजूरनो का वेष धारण करके अपना घातक संकल्प पूरा करने आई थी। मेहमान चले गये। महफिल उठ गई। दावत का सामान समेट दिया गया। चारों और सन्नाटा छा गया, लेधिन माधवी अभी तक यहों बैठी थी। सहसा मिस्टर मागचो ने पूछा- वुड्ढो, तू यहाँ क्यों बैठी है ? तुच्छे कुछ खाने को मिल गया ? माधवी-हाँ हसूर, मिल गया । भागचो-तो नाती क्यों नहीं ? माधवी-कहाँ जाऊँ सरकार, मेरा कोई घर-द्वार थोड़े ही है ? हुकुन हो तो यही पड़ रहूँ। पाव-भर आटे को परवस्ता हो जाय हजूर ! घागची-नौकरी करेगी ? माधवो क्यों न करूँगो सरकार, यहो तो चाहतो हूँ । मागची -लका खेला सकती है? माधवी-हां हजूर, यह मेरे मन का काम है। बागचो-अच्छो पात है। तू आज हो से रह । जा घर में देख, जो काम बातायें वह कर। ( ३ ) एक महीना गुजर गया। माधवो इतना तन-मन से काम धरती है कि सारा घर- उससे खुश है। बहुगो का मिजाज बहुत ही चिड़चिड़ा है। वह दिन-भर खाट पर पड़ी रहती है और बात-बात पर नौकरों पर झल्लाया करती हैं। लेकिन माघको उनको घुधियों को भी सहर्ष सह लेतो है। अब तक मुश्किल से कोई दाई एक सप्ताह से अधिक ठहरी थी। माधवी हो का कलेजा है कि जलो-टो सुनकर भी मुख पर मैल नहीं आने देतो। मिस्टर बागची के कई लड़के हो चुके थे, पर यहो सबसे छोटा बचा पच रहा था। बच्चे पैदा तो हष्ट-पुष्ट होते, किन्तु जन्म लेते ही उन्हें एक-न-एक रोग का जाता था, और कोई दो-चार महोने, कोई साल-भर जोकर चल देते थे। माँ-धार दोनों इस शिशु पर प्राण देते थे। उसे परा जुकाम भी हो जाता तो दोनों विफल हो
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