माता का हृदय माधवी की आँखों में सारा संसार अँधेरा हो रहा था। कोई अपना मददगार न दिखाई देता था। कहीं आशा को नलक न थी। उस निर्जन घर में वह अकेली पड़ी रोती थी और कोई आँसू पोछनेवाला न था । उसके पति को मरे हुए २२ वर्ष हो. गये थे। घर में कोई सम्पत्ति न थी। उसने न जाने किन तकलीफों से अपने बच्चे को पाल-पोसकर बड़ा किया था। वही जवान बेटा माज उसको गोद से छोन लिया गया था, और छीननेवाले कौन थे ? अगर मृत्यु ने छीना होता तो वह सब कर लेती। मौत से किसी को द्वष नहीं होता। मगर स्वार्थियों के हार्थो यह अत्याचार असह्य हो रहा था। इस पोर सन्ताप की दशा में उसका जी रह-रहकर इतना विकल हो जाता कि इसो समय चलूँ और उस अत्याचारी से इसका बदला लूं जिसने उस पर यह निष्ठुर आघात किया है। मारु या मर जाऊं। दोनों ही में सन्तेष हो जायगा । कितना सुन्दर, कितना होनहार बालक थी ! यही उसके पति की निशानी, उसके जीवन का आधार, उसकी उम्र भर की कमाई थी। वही लड़का इस वक्त जेल में पड़ा न जाने क्या-क्या तकलीफें झेल रहा होगा। और उसका अपराध क्या था ? कुछ नहीं । सारा मुहल्ला उस पर जान देता था । विद्यालय के अध्यापक उस पर जान देते थे। अपने-बेगाने सभो तो उसे प्यार करते थे। कभी उसकी कोई शिकायत सुनने ही में नहीं आई । ऐसे चालक की माता होने पर अन्य माताएँ उसे बधाई देती थीं। कैसा सज्जन, कैसा उदार, कैसा परमार्थी । खुद भूखों सो रहे, मगर क्या मजाल कि द्वार पर आनेवाले अतिथि को रूखा जवाब है। ऐसा बालक क्या इस योग्य था कि जेल में जाता ! उसका अपराध यही था। वह कभी-कभी सुननेवालों को अपने दुखी भाइयों का दुखड़ा सुनाया करता था, अत्याचार से पीड़ित प्राणियों को मदद के लिए हमेशा तैयार रहता था। क्या यहो उसका अपराध था ? दूसरों की सेवा करना भी अपराध है ? किसी अतिथि को आश्रय देना भी अपराध है ? इस युवक का नाम आत्मानन्द था। दुर्भाग्यवश उसमें वे सभी सद्गुण थे जो जेल का द्वार खोल देते है। वह निर्भीक था, स्पष्टवादो था, साहमी था, स्वदेश-प्रेमी
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