मानसरोवर 'बजाता था। उसके मित्र लोग भी उसी रग में रंगे हुए थे। मालूम होता था, इनके लिए भोग विलास के सिवा और कोई काम नहीं है। पिछले पहर को महफ़िल में सन्नाटा हो गया । हु-हा को आवाजें बन्द हो गई। लोला ने सोचा, क्या लोग कहों चले गये, या सो गये ? एकाएक समाटा क्यों छ। -गया ? जाकर देहलोज़ में खड़ी हो गई और बैठक में झांककर देखा । सारी देह में एक ज्वाला सी दौड़ गई । मित्र लोग विदा हो गये थे। समाजियों का पता न था। केवल एक रमणो मसनद पर लेटी हुई थी और सोतासरन उसके सामने झुका हुआ -उससे बहुत धीरे-धीरे बातें कर रहा था। दोनों के चेहरों और आँखों से उनके मन के भाव साफ झलक रहे थे। एक को आँखों में अनुराग था, दूसरी की आँखों में कटाक्ष । एक भोला-भाला हृदय एक मायाविनी रमणो के हार्थों लुटा जाता था। लोला को सम्पत्ति को उसकी आँखों के सामने एक छलिनी चुराये लिये जाती थी। लोला -को ऐसा क्रोध आया कि इसी समय चलकर इस कुलटा को आड़े हाथों ल, ऐसा दुत्का कि वह भी याद करे, खड़े-खड़े निकाल हूँ। वह पत्नो-भाव जो बहुत दिनों से सो रहा था, जाग उठा, और उसे विकल करने लगा, पर उसने जन्त किया। वेग से दौड़ती हुई तृष्णाएँ अकस्मात् रोकी जा सकती थी। वह उलटे पाव भीतर लौट आई और मन को शान्त करके सोचने लगी-वह रूप-रंग में, हाव-भाव में, नखरे-तिल्ले में उस दुष्टा की बराबरी नहीं कर सकती । बिलकुल चाँद का टुकड़ा है, अङ्ग अङ्ग में स्फूर्ति भरी हुई है, पोर-पोर में मद छलक रहा है। उसकी आँखों में कितनी तृष्णा है, तृष्णा नहीं, बल्कि ज्वाला 1 लीला उसी वक्त आईने के सामने गई। भाज कई महीनों के बाद उसने भाईने में अपनी सूरत देखी। उसके मुख से एक आई निकल गई । शौक ने उसकी काया-पन्ट कर दी थी। उस रमणो के सामने वह ऐसी लगती थी जैसे गुलाब के सामने जूही का फूल ! . . सीतासरन का खुमार शाम को टूटा। भाखें खुली तो सामने लीला को खड़ी मुसकिराते देखा । उसकी अनोखी छवि भाखों में समा गरें । ऐसे खुश हुए मानों बहुत दिनों के वियोग के बाद उससे भेंट हुई हो। उसे क्या मालूम था कि यह रूप भरने के लिए लीला ने कितने आँसू बहाये हैं, केशों में यह फूल गूंथने के पहले
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