स्वग का दवा को कभी कोई शिकायत न होती थी। कभी पेट में गिरानो मालूम हुई तो हर को फको मार ली । एक दिन बाबू सतसरन के पेट में मीठा-मोठा दर्द होने लगा । आपने उसकी परवा न की। आम खाने बैठ गये। सैकड़ा पूरा करके उठे ही थे कि के हुई। गिर पड़े। फिर तो तिल तिल पर के और दस्त होने लगे। हैजा हो गया। शहर से साक्टर बुलाये गये, लेकिन उनके आने के पहले ही बाबू साहब चल बसे थे। रोना- पीटना मच गया। संध्या होते-होते लाश घर से निकली। लोग दाह-क्रिया करके आधी रात को लौटे तो मालकिन को भी के और दस्त हो रहे थे। फिर दौड़-धूप शुरू हुई। लेकिन सूर्य निकलते-निकलते वह भी सिधार गई । स्त्री-पुरुष जीवन-पर्यन्त एक दिन के लिए भी अलग न हुए थे। ससार से भी साथ ही साथ गये, सूर्यास्त के समय पति ने प्रस्थान किया, सूर्योदय के समय स्त्री ने । लेकिन मुसीबत का अभी अन्त न हुआ था। लीला तो सस्कार की तैयारियों में लगी थी। मकान की सफाई की तरफ किसी ने ध्यान न दिया। तीसरे दिन दोनों बच्चे दादा-दादी के लिए रोते-रोते बैठके में जा पहुंचे। वहाँ एक आले पर खरबूजा कटा हुआ पड़ा था, दो-तीन कलमी आम भी कटे रखे थे। इन पर मक्खियों मिनक रही थीं । जानकी ने एक तिपाई पर चढ़कर दोनों चीजें उतार ली और दोनों ने मिलकर खाई। शाम होते-होते दोनों को हैला हो गया और दोनों मां-बाप को रोता छोड़ चल बसे । पर अंधेरा हो गया। तीन दिन पहले जहाँ चारों तरफ चहल-पहल थी, वहां भव सन्नाटा छाया हुआ था, किसी के रोने की आवाज भी न सुनाई देती थी। रोता ही कौन ? ले-देके कुल दो प्राणी रह गये थे। और उन्हें रोने को भी मुधि न थी। ( ४ ) लीला का स्वास्थ्य पहले भी कुछ अच्छा न था, अब तो वह और भी बेजान हो गई। उठने-बैठने की शक्ति भी न रही। हरदम खोई-सी रहती, न कपड़े-लत्ते की सुधि थी, न खाने-पीने की । उसे न घर से वास्ता था, न बाहर से । जहाँ बैठतो वहीं बैठी रह जाती । महीनों कपड़े न बदलती, सिर में तेल न डालती। बच्चे ही उसके प्राणों के भाधार थे। जब वही न रहे तो मरना और जीना बराबर था। रात-दिन यही मनाया करती कि भगवान् , यहाँ से ले चलो । सुख-दुख सब भुगत चुकी । अब सुख की लालसा नहीं है । लेकिन घुलाने से मौत किसी को आई है?
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