मानसरोवर लोका ने पति के हाथों से खेलते हुए कहा-यहाँ न आतो तो तुम्हारा प्रम कैसे पातो! पांच साल गुज़र गये। लीला दो बच्चों को मा हो गई। एक लड़का था, दूसरी बड़की। लड़के का नाम जानकीसरन रखा गया और लड़की का नाम कामिनी । दोनों बच्चे घर को गुलज़ार किये रहते थे। लड़की दादा से हिली थी, लड़का दादो से । दोनों शोख और शरीर थे । गाली दे बैठना, मुंह चिढ़ा देना तो उनके लिए मामूली बात थी। दिन-भर खाते और आये दिन बीमार पड़े रहते। लीला ने तो खुद सभी कष्ट मेल लिये थे, पर बच्चों में बुरी आदतों का पढ़ना उसे बहुत बुरा मालूम होता था। किन्तु उसकी कौन सुनता था। बच्चों की माता होकर उसकी अब गणना हो न रही थी। जो कुछ थे, बच्चे थे, वह कुछ न थी। उसे किसी बच्चे को डांटने का भी अधिकार न था, सास फाड़ खाती थी। सबसे बड़ी विपत्ति यह थी कि उसका स्वास्थ्य अब और भी खराब हो गया था। प्रसव-काल में उसे वे सभी अत्याचार सहने पड़े जो अज्ञान, मूर्खता और अंध विश्वास ने सौर की रक्षा के लिए गढ़ रखे हैं। उस काल-कोठरी में, जहाँ न हवा का मुखर था, न प्रकाश का, न सफाई का, चारों ओर दुर्गन्ध, सोल और गन्दगी भरी हुई थो, उसका कोमल शरीर सूख गया । एक बार जो कसर रह गई थी वह दूसरी बार पूरी हो गई। चेहरा पीला पड़ गया, भांखें फंस गई। ऐसा मालूम में ही नहीं रहा । सूरत ही बदल गई। गर्मियो के दिन ये। एक तरफ आम पके, दूसरी तरफ़ खरबूजे । इन दोनों मेवों की ऐसी अच्छी फसल पहले कमी न हुई थी। अबको इनमें इतनी मिठास न जाने कहाँ से आ गई थी कि कितना हो खामो, मन न भरे । सन्तसरन के इलाके से आम मौर खरबूजे के टोकरे भरे चले आते थे। सारा पर खूब उछल-उछल खाता था। बाबू साहब पुरानी रशी के आदमी थे । सबेरे एक सैकड़े आमों का नाश्ता करते, फिर पसेरी-भर खरबूजे चट कर जाते। मालकिन उनसे पीछे रहनेवाली न थीं। उन्होंने तो एक वक्त का भोजन ही बन्द कर दिया। अनाज सहनेवाली चीज नहीं। नहीं, कल खर्च हो जायगा। आम और खरबूजे तो एक दिन भी नहीं ठहर सकते। शुदनी थी। और क्या ? योहो हर साल दोनों चीजों को रेलपेल होती थी, पर किसी होता, बदन - भाष
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