स्वग का दवा ७३ - बेटे के मुंह से ऐसी बातें सुनकर माता आग हो जाती और सारे दिन जलतो । कमो भाग्य को कोसती, कभी समय को। सीतासरन माता के सामने तो ऐसी बातें बरता, लेकिन लोला के सामने जाते हो उसको मति बदल जाती थी। वह वही बातें करता जो लोला को अच्छी लगती। यहां तक कि दोनों वृद्धा की हँसी उड़ाते। लोला को इस घर में और कोई सुख न था। वह सारे दिन कुढ़ती रहती थी। कभी चूल्हे के सामने न बैठी थी, पर यहाँ पँसेरियों आटा थोपना पड़ता, मजूरों और टइलुओं के लिए भो रोटियाँ पलानी पड़तों । कभी-कभी वह चूल्हे के सामने बैठी घटों रोती। यह बात न थो कि यह लोग कोई महराज-रसोइया न रख सकते हो, पर बर को पुरानो प्रथा यही थी कि बहू खाना पकाये और उस प्रथा का निभाना जरूरी था। सोतासरन को देखकर कोला का सतप्त हृदय एक क्षण के लिए शान्त हो जाता था। गमी के दिन थे और सन्ध्या का समय । बाहर हवा चमतो थो, भोतर देह फुकतो थी। लोला कोठरी में बैठो एक किताम देख रही थी कि सीतासरन ने आकर कहा-यहां तो बड़ी गर्मी है, बाहर बैठो। लोला~यह गर्मी उन तानों से अच्छी है जो अभी सुनने पड़ेंगे। सीतासरन-आज भार नोली तो मैं भो विगड़ जाऊँगा। लीला-तब तो मेरा घर में रहना भी मुश्किल हो जायगा । सीतासरन-बला से, अलग ही रहेंगे। लीला-मैं तो मर भो जाऊँ तो भी अलग न हूँ। वह जो कुछ कहती-सुनतो हैं, अपनी समझ में मेरे भले ही के लिए कहती-सुनती हैं। उन्हें मुझसे कुछ दुश्मनो थोड़े ही है । हाँ, हमें उनकी बातें अच्छी न लगें, यह दूसरी बात है। उन्होंने खुद वह सब हष्ट शेले है जो वह सुझे झेलवाना चाहती हैं। उनके स्वास्थ्य पर उन इष्टो का जरा भी असर नहीं पड़ा। वह इन ६५ वर्ष की उम्र में मुझसे कहीं टॉठी हैं। फिर उन्हें कैसे मालूम हो कि इन कष्टों से स्वास्थ्य बिगड़ सकता है ? सीतासरन ने उसके मुरझाये हुए मुख की ओर करुण नेत्रों से देखकर कहा- तुम्हें इस घर में जाकर बहुत दुःख सहना पड़ा । यह घर तुम्हारे योग्य न था। तुमने पूर्व-जन्म में पर कोई पाप ख्यिा होगा।
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