कौशल पड़ता, ब्राह्मग डाँड कौन लेता; किन्तु पण्डित नो ब्राह्मगन के गौरव को इतने बस्ते दामों न बेचना चाहते थे। आलस्य छोड़कर धनोपार्जन में दत्तचित हो गये । ६ महीने तक उन्होंने दिन को दिन और रात को रात नहीं जाना । दोपहर को खोना छोड़ दिया। रात को भी बहुत देर तक जागते । पहले फेवल एक पाठशाला में पढ़ाया करते थे । इसके सिवा वह ब्राह्मण के लिए खुले हुए एक सौ एक व्यवसायों में समो को निन्दनीय समझने थे। पर अब पाठशाला में आकर सध्या समय एक जगह 'भागवत को कथा' कहने जाते, वहाँ से लौटकर ११-१२ वजे रात तक जन्म-कुण्ड- लियां, वर्ष-फल आदि बनाया करते। प्रातःकाल मन्दिर में 'दुर्गाजो का पाठ' करते । माया पण्डितजी का अध्यवसाय देख देखकर कभी-कभी पछतातो कि कहाँ से कहाँ मैंने यह विरत्ति सिर पर ली। कहीं मोमार पड़ जायें तो लेने के देने पड़े। उनका शरीर क्षीण होते देखकर उसे अब यह चिन्ता व्यथित करने कगी। यहां तक कि पांच महीने गुप्सर गये। एक दिन सध्या समय वह दिया-भत्तो करने जा रही थी कि पण्डितजो आये, जेब से एक पुड़िया निकालकर उसके सामने फेंक दी और पोले --लो, आज तुम्हारे ऋण से मुक्त हो गया। माया ने पुझ्यिा खोली तो उसमें सोने का हार था, उसको चमक-दमक, उनकी सुन्दर बनावट देखकर उनके अन्त स्थल में गुदगुशे-सो होने लगो । मुख पर आनन्द को आमा दोड़ गई। उसने कातर नेत्रों से देखकर पूछा-खुश होकर दे रहे हो या नाराज होकर ? पण्डित-इससे क्या मतलब ? ऋग तो चुकाना हो पड़ेगा, चाहे खुशो से हो या नाखुशी से। माया-यह ऋण नहीं है। पण्डित-और क्या है ? बदला सही । माया-बदला भी नहीं है। पण्डित-फिर क्या है। माया-तुम्हारी "निशानी ! पण्डित-तो क्या ऋण के लिए दूसरा हार मनवाना पड़ेगा ? माया-नहीं-नहों, वह हार चोरी नहीं गया था । मैंने झूठ-मूठ शोर मचाया था 1
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