नागपरसपर हृदयनाथ---यह विपत्ति तो मेरे पिर ही पड़ी हुई है। आप लोगों को तो मालूम होगा। पहले महाशय-आप ही के सिर क्यों, हम सभी के सिर पड़ी हुई है। दूसरे महाशय - समस्त जाति के सिर कहिए । हृदयनाथ-~-उद्धार का कोई उपाय सोचिए । पहले महाशय-मापने समझाया नहीं ? हृदयनाथ-समझा में हार गया। कुछ सुनती ही नहीं। तीसरे महाशय-पहले ही भूल हुई। उसे इस रास्ते पर डालना हो न चाहिए था। पहले महाशय-उस पर पछताने से क्या होगा। सिर पर जो पड़ी है उसका उपाय सोचना चाहिए। आपने समाचार-पत्रों में देखा होगा, कुछ लोगों को सलाह है कि विधवाओं से अध्यापकों का काम लेना चाहिए। यद्यपि मैं इसे भी बहुत अच्छा -नहीं समझता, पर सन्यासिनी बनने से तो कहीं अच्छा है। लड़की अपनी आंखों के -सामने तो रहेगो । अभिप्राय केवल यही है कि कोई ऐसा काम होना चाहिए जिसमें रुड़की का मन लगे। किसी अवलम्ब के बिना मनुष्य के भटक जाने की श का सदैव पनी रहती है । जिस घर में कोई नहीं रहता उसमें चमगादड़ बसेरा लेते हैं । दूसरे महाशय-सलाह तो अच्छी है । मुहल्ले को दस-पांच कन्याएँ पढ़ने के लिए बुला लो जाये । उन्हें किताबे, गुड़िया आदि इनाम मिलता रहे तो बड़े शौक से -आयेंगी । लड़की का मन तो लग जायगा । हृदयनाथ देखा चाहिए । भरसक समझाऊँगा। ज्योंही यह लोग बिदा हुए, हृदयनाथ ने कैलासकुमारो के वामने यह तजवोज़ पेश की । कैलासो को सन्यस्त के उच्चपद के सामने अध्यापिका बनना अपमानजनक जान पड़ता था। कहाँ वह महात्माओं का सत्संग, वह पर्वतों की गुफा, वह सुरम्य प्राकृतिक दृश्य, वह हिमराशि की ज्ञान मय ज्योति, वह मानसरोवर और कैलास की शुभ्र छटा, वह आत्मदर्शन को विशाल कल्पनाएँ, और कहाँ बालिकाओं को चिड़ियों को शांति पढ़ाना । लेकिन हृदयनाथ कई दिनों तक लगातार सेवा-धर्म का.माहात्म्य उसके हृदय पर अंकित करते रहे। सेवा हो वास्तविक संन्यास है। संन्यासो केवल अपनी मुक्ति का इच्छुक होता है, सेवा-व्रतधारी अपने को परमार्थ को वेदो पर बजि दे देता
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