१८ मानसावर स्वाध्याय, सयम, उपासना में मां-बेटी रत रहने लगी। कैलासी को गुरुजी ने दीक्षा दो, मुहल्ले और विरादरी की स्त्रियां आई, उत्सव मनाया गया । मां-बेटी भव किश्तो पर सैर करने के लिए गंगा न जाती, बलिक स्नान करने के लिए। मंदिरों में नित्य जातो। दोनों एकादशी का निर्जल व्रत रखने लगी। कैलासी को गुरुजी नित्य सध्या समय धर्मोपदेश करते । कुछ दिनों तक तो कैलासी को यह विचार-परिवर्तन बहुत कष्टजनक मालूम हुआ, पर धर्मनिष्ठा नारियों का स्वाभाविक गुण है, थोड़े ही दिनों में उसे धर्म से रुचि हो गई। अब उसे अपनी अवस्था का ज्ञान होने लगा था। विषय-वासना से चित्त आप-हो-आप खिचने लगा। 'पति' का यथार्थ आशय समझ में आने लगा था। पति हो स्त्री का सच्चा मित्र, सच्चा पथ-प्रदर्शक और सच्चा सहायक है। पति विहीन होना किसी घोर पाप का प्राम- श्चित्त है। मैंने पूर्वजन्म में कोई अर्म किया होगा। पतिदेव जीवित होते तो मैं फिर माया में फंस जाती। प्रायश्चित्त का अवसर कहाँ मिलता ! गुरुजी का बचन सत्य है कि परमात्मा ने तुम्हें पूर्व कमी के प्रायश्चित्त का यह अवसर दिया है। वैधव्य यातना नहीं है, जीवद्धार का साधन है । मेरा उद्धार त्याग, विराग, भक्ति और उपासना ही से होगा। कुछ दिनों के बाद उसकी धार्मिक वृति इतनी प्रबल हो गई कि अन्य प्राणियों से वह पृथक रहने लगी, किसी को न छूती, महरियों से दूर रहती, सहेलियों से गले तक न मिल्ती, दिन में दो दो, तीन-तीन बार स्नान करतो, हमेशा कोई-न-कोई धर्म- अन्य पढ़ा करती। साधु-महात्माओं के सेवा-सत्कार में उसे आत्मिक सुख प्राप्त होता। जहां किसी महात्मा के आने की खबर पाती, उनके दर्शनों के लिए विकल हो जाती। उनकी अमृतवाणी सुनने से जी न भरता । मन ससार से विरक्त होने लगा। तल्लीनता को अवस्था प्राप्त हो गई। घण्टों ध्यान और चिन्तन में मग्न रहती। सामाजिक बन्धनों से घृणा हो गई। हृदय स्वाधीनता के लिए लालायित हो गया। यहां तक कि तीन ही बरसों में उसने संन्यास ग्रहण करने का निश्चय कर लिया। मां-बाप को यह समाचार ज्ञात हुआ तो होश उड़ गये। म बोली-बेटी, अभो तुम्हारी उन ही क्या है कि तुम ऐसो वाते सोचतो हो । कैलासफुमारी-माया-मोह से जितनी जल्द निवृत्ति हो जाय उतना हो मच्छा। ,
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