नैराश्य-लीला हृदयनाथ-मैं भी अब उससे दिल बहलानेवाली बातें किया करूंगा। कल एक सैरवी लाऊँगा, अच्छे-अच्छे दृश्य जमा करूंगा। प्रामोफोन तो आज ही मंगवाये देता हूँ। बस उसे हर वक किसी-न-किसी काम में लगाये रहना चाहिए । एकान्तवास शोक- ज्वाला के लिए समोर के समान है। उस दिन से बागेश्वरी ने कैलासकुमारी के लिए विनोद और प्रमोद के सामान जमा करने शुरू किये। कैलासी मां के पास आती तो उसको आँखों में आँसू की बूंदें न देखती, होठों पर हँसी की आभा दिखाई देती। वह मुसकिराकर कहतो- बेटो, आज थिएटर में बहुत अच्छा तमाशा होनेवाला है, चनो देख आयें। कभी गगा-स्नान को ठहरती, वहां मां-बेटो किश्ती पर बैठकर नदी में जल-विहार करती, कभी दोनों संध्या समय पार्क की ओर चलो जातो। धीरे-धोरे सहेलियाँ भी आने लगी । कभी सब-की-सब बैठकर ताश खेलती, कभी गातों-बजातो । पण्डित हृदयनाथ ने भी विनोद को सामग्रियाँ जुटाई। कैलासी को देखते हो मग्न होकर बोलते- बेटो आओ, तुम्हें आज काश्मीर के दृश्य दिखाऊँ, कभी कहते, थाओ, आज स्विट्जर- लैंड की अनुपम झोलो और मरनों की छटा देखें, कभी ग्रामोफोन बजाकर उसे सुनाते । कैलासी इन सैर-सपाटों का खूब भानन्द उठाती। इतने मुख से उसके दिन कभी न गुजरे थे। ( २ ) इस भांति दो वर्ष बीत गये। कैलासो सैर-तमाशे को इतनी आदी हो गई कि एक दिन भी थिएटर न जाती तो बेकली-सो होने लगती। मनोरंजन नवीनता का दास है और समानता का शत्रु । थिएटरों के बाद सिनेमा की सनक सवार हुई। सिनेमा के बाद मिस्मेरिज्म और हिप्नोटिज्म के तमाशौ की। ग्रामोफोन के नये रिकार्ड आने लगे। संगीत का चस्का पड़ गया। बिरादरी में कहीं उत्सव होता तो मां-बेटी अवश्य जाती । कैलासी नित्य इसी नशे में दुषी रहती, चलतो तो कुछ गुनगुनातो हुई, किसी से बातें करती तो वही थिएटर और सिनेमा को। भौतिक संसार से अब उसे कोई वास्ता न था, अब उसका निवास कल्पना-ससार में था। दूसरे लोक को निवामिनो होकर उसे प्राणियों से कोई सहानुभूति न रही, किसी के दुःख पर जरा भी दया न आती । स्वभाव में उच्छृङ्खस्ता का विकास हुआ, अपनी सुरुचि पर गर्व करने लगो। सहेलियों से डोंगे मारती, यहां के लोग मूर्ख हैं, यह सिनेमा को कद्र क्ण करेंगे।
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