नैराश्य-लीला t पण्डित हयनाथ अयोध्या के एक सम्मानित पुरुष थे ; धनवान् तो नहीं, लेकिन खाने-पीने से खुश थे। कई मकान थे, उन्हीं के किराये पर गुजर होता था। इधर किराये पढ़ गये थे जिससे उन्होंने अपनी सवारी भो रख लो थी । बहुत विचारशील भादमी थे, अच्छी शिक्षा पाई थो, संसार का काफो तजुरबा था, पर क्रियात्मक शक्ति से पचित थे, सब कुछ जानते हुए भी कुछ न जानते थे । समाज उनको आँखों में एक भयंकर भूत था जिससे सदैव डरते रहना चाहिए। उसे जरा भी रुट किया तो फिर मान को खैर नहीं। उनकी स्त्री जागेश्वरो उनको प्रतिषिम्म थो, पति के विचार उसके विचार, और पति को इच्छा उसकी इच्छा थी। दोनों प्राणियों में कभी मतभेद न होता था। जागेश्वरी शिव की उपासक थो, हृदयनाथ वैष्णव थे, पर दान और व्रत में दोनों को समान श्रद्धा थी। दोनों धर्मनिष्ठ थे, उससे कहीं अधिक, जितना सामान्यतः शिक्षित लोग हुआ करते हैं। इसका कदाचित् यह कारण था कि एक कन्या के सिवा उनके और कोई सन्तान न थी। उसका विवाह तेरहवें वर्ष में हो गया था, और माता- पिता को अव यहो लालसा थी कि भगवान् इसे पुत्रवतो करें तो हम लोग नवासे के नाम अपना सब कुछ लिख-लिखाकर निश्चिन्त हो जायें। किन्तु विधाता को कुछ और ही मजूर था । कैलासकुमारी का अमो गौना भी न हुआ था, वह अभी तक यह भी न जानने पाई थी कि विवाह का आशय क्या है, कि उसका सोहाग उठ गया। वैधव्य ने उसके जीवन को अभिलाषाओं का दीपक पुझा दिया। माता और पिता विलाप कर रहे थे, घर में कुहराम मचा हुआ था, पर केलास- कुमारी भौचको हो-होकर सपके मुंह की ओर तातो थी। उसको समझ ही में न आता श कि यह लोग रोते क्यों हैं ? मां-बाप को इकलोती बेटो थी। मां-बाप के अतिरिक्त वह किसी तीसरे व्यक्ति को अपने लिए मावश्यक न सममतो थो। उसको सुख-कल्पनाओं में अभी तक पति का प्रवेश न हुआ था । वह समम्मतो थो, स्त्रियाँ पति के मरने पर इसी लिए रोती हैं कि वह उनका और उनके बच्चों का पालन करता है। .
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