UWV1 मर्यादा--मैंने समझा, जब यह लोग पहुँचाने कहते ही हैं तो तार क्यों है? परशुराम - खैर, रात को तुम वही रहो। युवक बार-बार भीतर आते-जाते रहे होंगे ? मर्यादा-केवल एक बार एक सेवक भोजन के लिए पूछने आया था, जब हम समों ने खाने से इनकार कर दिया तो वह चला गया और फिर कोई न आया। मैं तो रात-भर जागती ही रही। परशुराम-यह मैं कभी न मानगा कि इतने युवक वहां थे और कोई अन्दर न गया होगा। समिति के युवक आकाश के देवता नहीं होते। खैर, वह दादोवाला अध्यक्ष तो ज़रूर ही देख-भाल करने गया होगा ? मर्यादा-हाँ, वह आते थे; पर द्वार पर से पूछ-पाछकर लौट जाते थे। हाँ, जब एक महिला के पेट में दर्द होने लगा था तो दो-तीन बार दवाएँ पिलाने भाये थे। परशुराम-~-निकली न वही बात ! मैं इन धूतौ की नस-नस पहचानता हूँ। विशेषकर तिलक-मालाधारी दड़ियलों को तो मैं गुरु-घण्टाल ही समझता हूँ। तो वह महाशय कई बार दवाएँ देने गये ? क्यों, तुम्हारे पेट में तो दर्द नहीं होने लगा था ! मर्यादा-तुम एक साधु पुरुष पर व्यर्थ आक्षेप कर रहे हो। वह बेचारे एक तो मेरे बाप के बराबर थे, दूसरे आखें नीचे किये रहने के सिवाय कभी किसी पर सोधी निगाह नहीं करते थे। परशुराम-हा, वहाँ सब देवता-ही-देवता जमा थे। खैर, तुम रात-भर वहाँ रही। दूसरे दिन क्या हुआ ? मर्यादा-दूसरे दिन भी वहाँ रहो। एक स्वयंसेवक हम सब स्त्रियों को साथ लेकर मुख्य-मुख्य पवित्र स्थानों का दर्शन कराने गया। दोपहर को लौटकर सबों ने भोजन किया। परशुराम-तो वहाँ तुमने सैर-सपाटा भी खूब किया, कोई कष्ट न होने पाया। भोजन के बाद गाना-बजाना हुआ होगा ? मर्यादा-गाना-बजाना तो नहीं, हां, सब अपना-अपना दुखड़ा रोती रही। शाम बक मेला उठ गया, तो दो सेवक हम लोगों को लेकर स्टेशन पर आये। परशुराम-मगर तुम तो आज सात दिन भा रही हो और वह भी अकेली?
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