निर्वासन . परशुराम-वहीं, वहीं, वहीं दालान में ठहरो! मर्यादा-क्यों, क्या मुझमें कुछ छूत लग गई ? परशुराम-पहले यह बताओ कि तुम इतने दिनों कहाँ रही, किसके साथ रहों, 'किस तरह रही और फिर यहाँ किसके साथ आई तब, तब विचार...देखो जामगी। मर्यादा-क्या इन बातों के पूछने का यही वक्त है, फिर अवसर न मिलेगा ? परशुराम-~~हाँ, यही बात है ? तुम स्नान करके नदी से तो मेरे साथ हो निकली थीं। मेरे पीछे-पीछे कुछ दूर तक आई भी, मैं पोछे फिर-फिरकर तुम्हें देखता जाता था। फिर एकाएक तुम कहाँ गायब हो गई? मर्यादा-तुमने देखा नहीं, नागे साधुओं का एक दल सामने से आ गया। सब भादमी इधर-उधर दौड़ने लगे। मैं भी धक्के में पड़कर जाने किधर चली गई । जब जरा भीड़ कम हुई तो तुम्हें हूँढने लगो। बासू का नाम ले-लेकर पुकारने लगी, पर तुम न दिखाई दिये। परशुराम- अच्छा तब? मर्यादा--- तब में एक किनारे धैठकर रोने लगो, कुछ सूझ ही न पड़ता था कि कहाँ जाऊँ, किससे कहूँ, आदमियों से डर लगता था। सन्ध्या तक वहीं बैठी रोती रही। परशुराम--इतना तूल क्यों देती हो ? वहाँ से फिर कहाँ गई? मर्यादा-सन्ध्या को एक युवक ने आकर मुझसे पूछा, तुम्हारे घर के लोग खो तो नहीं गये हैं ? मैंने कहा, हाँ। तब उसने तुम्हारा नाम, पता, ठिकाना पूछा । उसने सब एक किताब पर लिख लिया और मुझसे बोला, मेरे साथ आओ, मैं तुम्हें तुम्हारे घर भेज दूंगा। परशुराम -वह कौन आदमी था ? मर्यादा-वहां की सेवा-समिति का स्वयंसेवक था। परशुराम-तो तुम उसके साथ हो नी ?
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