४२ मानसरोवर यह सोचकर वह धोरे से उठा और आकर पिता के सामने खड़ा हो गया। रात के दस बज गये थे। वाबू दरवारीलाल चारपाई पर लेटे हुए हुक्का पी रहे थे । भान उन्हें सारा दिन दौड़ते गुज़रा था। शामियाना तय किया, बाजेवालों को बयाना दिया, आतशबाली, फुलवारी आदि का प्रबन्ध किया, घटों ब्राह्मणों के साथ सिर मारते रहे, इस वक्त जरा कमर सीधी कर रहे थे कि सहसा हजारीलाल को सामने देखकर चौंक पड़े । उसका उतरा हुआ चेहरा, सजल आँखें और कुण्ठित मुख देखा तो कुछ चिंतित होकर बोले- क्यों लालू, तबीयत तो अच्छी है न ? कुछ उदास मालूम होते हो। . हमारीलाल-मैं आपसे कुछ कहना चाहता हूँ, पर भय होता है कि कहीं आप अप्रसन्न न हों। दरवारोलाल-सममा गया, वही पुरानी बात है न ? उसके सिवा कोई दूसरी बात हो तो शौक से कहो। हज़ारीलाल-खेद है कि मैं उसो विषय में कुछ कहना चाहता हूँ। दरमारीलाल-यही कहना चाहते हो न कि मुझे इस बन्धन में न डालिए, मैं उसके भयोग्य हूँ, मै यह भार सह नहीं सकता, यह बेड़ी मेरी गर्दन को तोड़ देगी, भादि, या और कोई नई बात ? हजारीलाल-जी नहीं, नई बात है। मैं आपकी आज्ञा पालन करने के लिए सब प्रकार से तैयार हूँ, पर एक ऐसी बात है, जिसे मैंने अब तक छिपाया था, उसे भी प्रकट कर देना चाहता हूँ । इसके बाद आप जो कुछ निश्चय करेंगे उसे मैं शिरोधार्य करूंगा। दरबारीलाल-कहो. क्या कहते हो ? हजारीलाल ने बड़े विनीत शब्दों में अपना आशय कहा, डाक्टरों को राय भी बयान को और अन्त में बोले- ऐसी दशा में मुझे पूरी आशा है कि आप मुझे विवाह करने के लिए बाध्य न करेंगे। दरबारीलाल ने पुत्र के मुख को ओर गौर से देखा, कहीं जी का नाम न था, इस कथन पर विश्वास न आया, पर अपना अविश्वास छिपाने और अपना हार्दिक शोक प्रकट करने के लिए वह कई मिनट तक गहरी चिन्ता में मग्न रहे । इसके बाद पीरित कण्ठ से बोले-बेटा, इस दशा में तो विवाह करना और भी आवश्यक है। ईश्वर न
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