मानसरोवर - रहे हैं। डाक्टरों ने भी यही कहा है। मुझे इसका खेद है कि मेरे हाथों तुम्हें कष्ट पहुँचा, पर क्षमा करना । कभी-कभी बैठे-बैठे मेरा दिल डूब जाता है, मूर्छा-सी मा जाती है। यह कहते एकाएक वह कांप उठे । सारी देह में सनसनी-सी दौड़ गई । मूच्छित होकर चारपाई पर गिर पड़े और हाथ पैर पटकने लगे। मुंह से फिचकुर निकलने लगा। सारी देह पसीने से तर हो गई। आशा का सारा रोग हवा हो गया। वह महीनों से बिस्तर न छोड़ सकी थी। पर इस समय उसके शिथिल अङ्गों में विचित्र स्फूर्ति दौड़ गई। उसने तेजी से उठ- कर विपिन को अच्छी तरह लेटा दिया और उनके मुख पर पानी को छीटें देने लगी। महरी भी दौड़ी आई और पंखा झलने लगी। बाहर खबर हुई, मित्रों ने दौड़- कर डाक्टर को बुलाया। बहुत यत्न करने पर भी विपिन ने आँखें न खोलौं । सध्या होते-होते उनका मुंह टेढ़ा हो गया, और माया अग शून्य पड़ गया। हिलना तो दूर रहा, मुँह से बात निकलना भी मुश्किल हो गया। यह मूर्छा न थी, फालिज था। ( ५ ) फालिज के भयकर रोग में रोगी की सेवा करना भासान काम नहीं है । उस पर आशा महीनों से बीमार थी । लेकिन इस रोग के सामने वह अपना रोग भूल गई । १५ दिनों तक विपिन की हालत बहुत नाजुक रही । आशा दिन-के-दिन और रात-को- रात उनके पास बैठी रहती, उनके लिए पथ्य बनाना, उन्हें गोद में संभालकर दवा पिलाना, उनके जरा-जरा से इशारे को समझना उसो जैसो धैर्यशील स्त्री का काम था। अपना सिर दर्द से फटा करता, ज्वर से देह तपा करती, पर इसकी उसे जरा भी परवाहन न थी। १५ दिनों के बाद विपिन की हालत कुछ सँभलो । उनका दाहना पैर तो लुज पर गया था, पर तोतको भाषा में कुछ बोलने लगे थे। सबसे बुरो गति उनके सुन्दर मुख की हुई थी। वह इतना टेढ़ा हो गया था, जैसे कोई रबर के खिलौने को खीच. कर बढ़ा दे। पैटरी की मदद से जरा देर के लिए बैठ या खड़े तो हो जाते थे, लेकिन चलने-फिरने की ताकत न थो। एक दिन लेटे-लेटे उन्हें क्या जाने क्या खयाल आया, आईना उठाकर अपना मुंह देखने लगे। ऐसा कुरूप आदमी उन्होंने कभी न देखा था । माहिस्ता से बोले-
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