स्त्री और पुरुष 1 वह परम सुन्दरी रमणो न थी जिसको उन्होंने कल्पना की थी, जिसको वह बरसों से कल्पना कर रहे थे- यह एक चौड़े मुँह, चिपटी नाक, और फूले हुए गालोंवालो कुरूपा स्त्री थो । रङ्ग गौरा था, पर उसमें लाली के बदले सुफेदी थी और फिर रज कैसा ही सुन्दर हो, रूप की कमी नहीं पूरी कर सकता। विपिन का सारा उत्साह ठण्डा पद गया-हा । इसे मेरे ही गले पड़ना था, क्या इसके लिए समस्त संसार में और कोई न मिलता था ? उन्हें अपने मायूँ पर क्रोध आया जिन्होंने वधू की तारीफों पुल बाँध दिये थे। अगर इस वक्त वह मिल जाने तो विपिन उनको ऐसी खवर लेता कि वह भी याद करते। जब कहारों ने फिर पालकियां उठाई तो विपिन मन में सोचने लगा, इस स्त्री के साथ मैं कैसे बोलूंगा, कैसे उसके साथ जीवन काटूंगा। उसकी ओर तो ताकने ही से घृणा होती है। ऐसो कुरूपा स्त्रियाँ भी संसार में हैं, इसका मुझे अब तक पता न या। क्या मुंह देश्वर ने बनाया है, क्या आखें है। मैं और सारे ऐवों की ओर से आखें बन्द कर लेता, लेकिन यह चौड़ा-सा मुँह ! भगवान् ! क्या तुम्हें मुझो पर यह बज्राघात करना था। ( ३ ) विपिन को अपना जीवन नरक-सा जान पड़ता था। वह अपने मा से लड़ा, ससुर को एक लम्धा खर्रा लिखकर फटकारा, माँ-बाप से हुजत की और जब इससे शाति न हुई तो कहीं भाग जाने की बात सोचने लगा। आशा पर उसे दया अवश्य आती थी, वह अपने को समझाता कि इसमें उस बेचारी का क्या दोष है, उसने जबरदस्ती तो मुझसे विवाह किया नहीं । लेकिन यह दया और यह विचार उस घृणा को न जीत सकता था जो आशा को देखते हो उसके रोम-रोम में व्याप्त हो जाती थी। आशा अपने अच्छे-से-अच्छे कपड़े पहनती, तरह-तरह से बाल संवारती, घण्टों आइने के सामने खड़ी होकर अपना शृङ्गार करती, लेकिन विपिन को यह शुतुरग्रमजे- से मालूम होते । वह दिल से चाहती थी कि इन्हें प्रसन्न करूँ, उनकी सेवा करने के लिए अवसर खोजा करती थी, लेकिन विपिन उससे भागा-भागा फिरता था। अगर कभी भेट हो भी जाती तो कुछ ऐसी जली-टी बातें करने लगता कि आशा रोती हुई वहां से चली जाती। सबसे बुरी बात यह थी कि उसका चरित्र भ्रष्ट होने लगा। वह यह भूल जाने
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