विनोद ३१७. नईम-नहीं, और तो कुछ नहीं कहा । हाँ, इतना देखा कि जब तक खड़ी रहो.. भापको ही तरफ उसकी टकटकी लगी हुई थी। पण्डितजी अकड़े जाते थे। हृदय फूला जाता था। जिन्होंने उनकी वह अनुपम : छवि देखो, वे बहुत दिनों तक याद रखेंगे। मगर इस अतुल आनन्द का मूल्य उन्हें बहुत देना पड़ा, क्योंकि अब काळेज का सेशन समाप्त होनेवाला था और मित्रों को पण्डितजी के माथे एक पार दावत खाने की बड़ी अभिलाषा थो। प्रस्ताव होने की देर थी। तीसरे दिन उनके नाम लुखो का पत्र पहुँचा -'वियोग के दुर्दिन आ रहे हैं . न जाने आप कहाँ होगे, और मैं कहाँ हूँगो'। मैं चाहतो हुँ, इस.अटल प्रेम को याद- गार में एक दावत हो । अगर उसका व्यय आपके लिए असत्य हो, तो मैं सम्पूर्ण भार लेने को तैयार हूँ। इस दावत में मैं और मेरो सखिया-महेलियां निमन्त्रित होगी, . कालेज के छात्र और अध्यापकगण सम्मिलित होगे। भोजन के उपरांत हम अपने वियुक्त हृदय के भावों को प्रकट करेंगे। काश, आपका धर्म, आपकी जीवन-प्रणाली और मेरे माता-पिता को निर्दयता बाधक न होती, तो हमें संसार की कोई शक्ति जुदा- न कर सकतो।' चक्रधर यह पत्र पाते हो बौखला उठे। मित्रों से कहा-भई, चलते चलते एका बार सहभोज तो है। जाय। फिर न-जाने कौन कहाँ होगा। मिस लूसो छो भी बुलाया जाय। यद्यपि पण्डितजी के पास इस समय रुपये न ये, घरवाले उनको फिजूल खर्ची को कई मार शिकायत कर चुके थे, मगर पण्डितजो का आत्माभिमान यह कम मानता था कि प्रीतिभोज का भार लूसी पर रखा जाय । वह तो अपने प्राणे' तक उस पर वार चुके थे। न जाने क्या क्या बहाने बनाकर ससुराल से रुपये मँगवाये, और बड़े समा- रोह से दावत की तैयारियां होने लगों। कार्ड छपवाये गये, भोजन परोसनेपाल के. लिए नई वदिया बनवाई गई। अगरेजी और हिन्दुस्तानी, दोना ही प्रकार के व्यं. बना की व्यवस्था की गई। अगरेजी खाने के लिए रायल होटल से बातचीत को गई। इसमें बहुत सुविधा थी। यद्यपि चोल बहुत महँगो थी, लेकिन मझट से नजात हो गई। अन्यथा सारा भार नईम और उसके दोस्त गिरधर पर पड़ता। हिन्दुस्तानी भोजन के व्यवस्थापक गिरिधर हुए । पूरे दो सप्ताह तक तैयारियां हुआ की। नईम और गिरधर तो कालेज में केवल
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