विनोद । तुम्हारी प्रेम पत्री मिलो । बार-चार पढ़ा। माता से लगाया "चुंबन ख्यिा । तिनो मनोहर । महदा' यौ। ईश्वर से यही प्रार्थना है हि हमारा प्रेम भी ऐसा ही सुरभि-सिंचित रहे । आपको शिकायत है कि मैं आपसे यात क्यों नहीं करती। प्रिय, प्रेम बातों से नहीं, हृश्य से होता है। जब मैं तुम्हारी ओर से मुंह फेर लेती हूँ, तो मेरे दिल पर क्या गुजरती है, यह मैं ही जानती हूँ। एकदमी हुई ज्वाला है, जो अदर-हो-अंदर मुझे भस्म कर रही है। आपको मालूम नहीं, जितनी आँखें हमारी भोर एक टक ताकतो रहती हैं। जरा भी सदेह हुआ, और चिर-वियोग की विपत्ति हमारे लिए पड़ो। इसलिए हमें बहुत हो सावधान रहना चाहिए। तुमसे एक याचना करती हूँ, क्षमा करना। मैं तुम्हें अंगरेपी पोशाक में देखने को बहुत उत्कठित हो रही हूँ। यो तो तुम चाहे जो वस्त्र धारण करो, मेरी आँखे के तारे हो-विशेषकर तुम्हारा सादा पुरता मुझे बहुत ही सुन्दर मालूम होता है-फिर भी, बाल्यावस्था से जिन वत्रों को देखती चली बातो हूँ उन पर विशेष अनुराग होना स्वाभाविक है। मुझे आशा है, तुम निराश न करोगे। मैंने तुम्हारे लिए एक वास्कट बनाया है । उसे मेरे प्रेम का तुच्छ उपहार समनाकर स्वीकार करो। तुम्हारी लषो।' 1 पत्र के साथ ही एक छोटा-सा पैन्ट था। वासष्ट उसी में वह था। यारो ने मापस में चन्दा करके बड़ी उदारता से इसका मुल धन एकत्र किया था। उस पर सेंट पर सेंट से भी अधिक लाभ होने को सभावना थी । पण्डित पक्रधर उक्त उपहार और पत्र पाकर इतने प्रसन्न हुए, जिसज्ञा ठिकाना नहीं । उसे लेकर सारे छात्रावास में चार लगा आये। मित्र-वृन्द देखते थे, उसको काट-छोट की सराहना करते थे, तारोफों के पुल पाँधते थे ; उसके मूल्य का अतिशयोक्ति-पूर्ण अनुमान करते थे। कोई कहता था- यह सोधे पेरिस से सिळभर आया है । इस मुल्क में ऐसे कारोगर हाँ ! कौन, भार कोई इसके टक्षर का वास्कट सिलवा दे, तो १००) को बाजी वश्ता हूँ। पर वास्तत्र में उसके कपडे का रंग इतना गहरा था कि कोई सुरुवि रखनेवाला मनुष्य उसे पहनना पसद न करता । चक्रधर को लोगों ने पूर्व-मुख करके खड़ा किया, और फिर शुन मुहूर्त में वह वाट उन्हें पहनाया । आप फूले न समाते थे। कोई इधर से भाकर कहता-- भाई, तुम तो बिलकुल पहचाने नहीं जाते। चोला ही बदल दिया। अपने वक के
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