विनोद ३०९ t न नईम-क्यों ? आपको हसद होता है क्या ? चक्रधर-हसद-वसद को बात नहीं, वहाँ प्रोफेसर साहब का लेक्चर सुनाई नहीं देता। मैं कान का जरा भारी हूँ। गिरधर-पहले तो आपको यह बोमारो न थी। यह रोग कब से उत्सन हो गया? नईम- और फिर प्रोफेसर साहब तो यहाँ से और भी दूर हो जायेंगे जी ? चक्रधर-दूर हो जायेंगे तो क्या, यहाँ अच्छा रहेगा। मुझे कभी-कभी झपकिया 'आ जाती हैं। सामने डर लगा रहता है कि कहीं उनको निगाह न पड़ जाय । गिरधर-आपको तो झपकियां ही आती हैं न । यहाँ तो वही घटा सोने का है। पूरी एक नींद लेता हूँ। फिर ? नईम - तुम भी अनोय आदमो हो । जव दोस्त होकर एक बात कहते हैं, तो उसको मानने में तुम्हें क्या एतराज ? चुपके से दूसरी जगह जा बैठो गिरधर-अच्छी बात है, छोड़े देता हूं। कितु यह समझ लोजिएगा कि यह कोई साधारण त्याग नहीं है। मैं अपने ऊपर बहुत मन कर रहा हूँ। कोई दूसरा लाख रुपये भो देता, तो जगह न छोड़ता। नईम-अरे भाई, यह जन्नत है जन्नत | लेकिन दोस्त को खातिर भी तो है फोई चीन? चक्रधर ने कृतज्ञता-पूर्ण दृष्टि से देखा और वहां जाकर बैठ गये। थोड़ी देर के बाद लूसी भी अपनी जगह पर आ बैठो। अब पण्डितजी बार-बार उसकी ओर सापेक्ष भाव से ताकते हैं कि वह कुछ बातचीत करे, और वह प्रोफेसर का भाषण सुनने में तन्मय हो रही है। आपने समम्मा, शायद लज्जा-वश नहीं बोलती। लज्जाशीलता रमणियों का सबसे सुन्दर भूषण भी तो है। उसके डेक्स की ओर मुंह फेर-फेरकर -ताछने लगे। उसे इनके पान चबाने से शायद घृणा होती थी-पार-धार मुंह दूसरी और फेर लेती थी। किन्तु पण्डितो इतने सूक्ष्मदर्शी, इतने कुशाग्रबुद्धि न थे। इतने असम थे, मानों सातवें आसमान पर हैं। सबको उपेक्षा की दृष्टि से देखते थे, मानों प्रत्यक्ष रूप से कह रहे हैं कि तुम्हें यह सौभाग्य कहाँ नसोब ! मुझ सा प्रतापी और कौन होगा? दिन तो गुजरा। सध्या समय पण्डितजी नईम के कमरे में भाये, और वोले- .
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