१९८ मानसरोवर इमारो भदालत भी भलग होगी। उसके सामने वे सभी मनुष्य अपराधी होंगे, जिनके पास प्रारत से जयादा सुख-भोग की सामग्रियाँ हैं। हम भी उन्हें दंड देंगे, हम भी उनसे को मिहनत लेंगे । जेल से निकलते हो उसने इस सामाजिक क्रांति को घोषणा कर दी। गुप्त सभाएँ बन्ने लगों, शस्त्र जमा सिये जाने लगे, और थोड़े ही दिनों में डाकों का बाजार गरम हो गया। पुलोस ने उनका पता लगाना शुरू किया। उधर क्रान्तिकारियों ने पुलीस पर भी हाथ साफ करना शुरू किया। उनको शक्ति दिन दिन बढ़ने लगी। काम इतनी चतुराई से होता था कि किसी को अपराधियों का कुछ सुराय न मिलता । रमेश कहीं गरीबों के लिए दवाखाने खोलता, कहीं बैंक । डाके के रुपयों से उपने इलाके खरोदना शुरू किया। महाँ कोई । लाका नीनाम होता, वह उसे खरोद लेता। बोले ही दिनों में उसके अधीन एक बड़ो जायदाद हो गई । इसका नमा गरीबों ही के उपकार में खर्च होता था। तुर्श यह कि सभी जानते थे, यह रमेश को करामात है ; पर किसी को मुंह खोलने की हिम्मत न होतो थो । सभ्य समान की दृष्टि में रमेश से ज्यादा घृणित और कोई प्राणी संसार में न था। लोग उसका नाम सुनकर कानों पर हाथ रख लेते थे । शायद उसे प्यासों भरता देखकर कोई एक बूंद पानी भी उसके मुंह में न डालता । लेकिन किसी को मजाल न थी कि उस पर आक्षेप कर सके। इस तरह कई साल गुमर गये । सरकार ने काफुओं का पता लगाने के लिए बड़े- बड़े इनाम रखे । यूरप से गुप्त पुलोस के सिद्धहस्त आदमियों को बुलाकर इस काम- पर नियुक्त किया । लेकिन राजय के डकत थे, जिनकी हिकमत के आगे किसी को कुछ न चलती थी। पर रमेश खुद अपने सिद्धान्तों का पालन न कर सका। ज्यों-ज्यों दिन गुजरते थे, उसे अनुभव होता था कि मेरे अनुयायियों में असन्तोस बढ़ता जाता है। उनमें भी जो ज्यादा चतुर और साहसो थे, वे दूसरों पर रोब जमाते और लूट के माल में बराबर हिस्सा न देते थे। यहां तक कि रमेश से कुछ लोग जलने लगे । वह अब राजसी ठाट से रहता था। लोग कहते, उसे हमारी माई को ये उभाने का क्या भधिकार है ? नतीजा यह हुआ कि आपस में फूट पड़ गई। रात का वक्त था कालो घटा छाई हुई थी। आज डाकगाड़ी में डाका पड़ने- वाला था। माम पहले से तैयार कर लिया गया था। पांच साहसी युवक इस काम के लिए चुने गये थे।
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