सत्याग्रह २८१ . हाय में एक नया शास्त्र भा जायगा, और वह सदैव इसका प्रयोग करेंगे। जनता इतनी समझदार तो है नहीं कि रहस्यों को समझे। गोदा-भवको में मा मायगी। लेकिन नगर के बनिये-महाजन, जो प्रायः धर्म भोरु होते हैं, ऐसे घबरा गये कि उन पर इन बातों का कुछ असर हो न होता था। वे कहते थे-साहब, आर लोगों के कहने से सरकार से बुरे बने, नुकसान उठाने को तैयार हुए, रोजगार छोड़ा, कितनों के शिवाले हो गये, अफसरों को मुंह दिखाने लायक नहीं रहे। पहले जाते थे, अधिकारी लोग 'आइए सेठजी' उहकर सम्मान करते थे, अब रेलगाड़ियों में धक्के खाते हैं, पर कोई नहीं सुनता, भामदनी चाहे कुछ हो या न हो, बहियों की तौल देखकर कर (टैक्स ) बढ़ा दिया जाता है । यह सब सहा, और सहेंगे, लेकिन धर्म के मामले में हम आप लोगों का नेतृत्व नहीं स्वीकार कर सकते। जम एक विद्वान्, कुलीन, धर्म-निछ ब्रह्मग हमारे ऊपर अन्न-जल त्याग कर रहा है, तब हम क्योंकर भोजन करके टांगे फैलाकर सो ? कहीं मर गया, तो भगवान् के सामने क्या जवाब देंगे? सावंश यह कि काग्रेसवालों की एक न चलो। व्यापारियों का एक डेपुटेशन ९ मजे रात को पण्डितजी को सेवा में उपस्थित हुआ। पण्डितजी ने मात्र भोजन तो खूप डटकर किया था, लेकिन स्टकर भोजन करना उनके कोई भसाधारण बात न थी। महीने में प्राय २० दिन यह अवश्य हो न्यौता पाते थे, और निमन्त्रण में डटकर भोजन करना एक स्वाभानिक बात है। अपने सहभौजियों को देखा-देखो, लाग-डाट की धुन में, या गृह-स्वामी के सविनय आग्रह से, और समप्ते बढ़कर पदार्थों को उत्कृष्टता के कारण, भोजन मात्रा से अधिक हो छो जाता है। पण्डितजो की जठ राग्नि ऐसी परीक्षाओं में उत्तीर्ण होती रहती थी। अतएव इस समय भोजन का समय मा जाने से उनकी नीयत कुछ डावाडोल हो रही थी। यह बात नहीं कि वह भूख से ब्याल थे। लेकिन भोजन का समय मा जाने पर अगर पेट अफरा हुआ न हो, भजीर्ण न हो गया हो, तो मन में एक प्रकार को भोजन की चाह होने लगती है। शास्त्रोनो को इस समय यही दशा हो रही थी। जी चाहता था, किसी खोंचेवाले को पुकारकर कुछ ले लेते, किन्तु अधिकारियों ने उनको शरीर-रक्षा के लिए वहाँ कई सिपाहियों को तैनात कर दिया था। वे सब हटने का नाम न लेते थे । पण्डितजी को
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