मानसरोवर गले मिल रही हैं। सभी कल दोनों पक्ष एक दूसरे के खून के प्याले थे। भाज भाई-माई हो रहे हैं। नादिरशाह तख्त पर बैठा हुआ है । मुहम्मदशाह भो उसो तख्त पर उसकी बगल में घंठे हुए हैं। यहाँ भी परस्पर शेम का व्यवहार है। नादिरशह ने मुस्किार कहा-- खुदा करे, यह सुलह हमेशा कायम रहे और लोगों के दिलों से इन खूनो दिनों की याद मिट जाय । मुहम्मदशाह-मेरी तरफ़ छे ऐसी कोई बात न होगी जो सुलह को खतरे में डाले। मैं से यह देस्तो कायम रखने के लिए हमेशा हुआ करता रहूँगा। नादिरशाह ---सुलह को जितनो शते थी, सन पूरी हो चुकी । सिर्फ एक गात बाकी है। मेरे यहाँ दस्तूर है कि सुलह के वक्त अमामे बदल लिये आते हैं । इसके मगर मुराह को कार्रवाई पूरी नहीं होती। भाइए, हम लोग भी अपने-अपने अमामे बदल लें। लीजिए, यह मेरा अपामा हाजिर है। यह कहकर नादिर ने अपना अमामा उतारकर मुहम्मदशाह की तरफ बढ़ाया। बादशाह के हाथों के तोते उड़ गये । समझ गया, मुम्स से दया की गई। दोनों तरफ के शूर-सामत सामने खड़े थे ; न कुछ कहते बनता था, न सुनते । पचने का कोई उपाय न था और न कोई उपाय सोच निकालने का अवसर हो । कोई जवाब न सूझा । इनकार की गुजाइश न थी। “मन मसोसकर रह गया। चुपके से अमामा सिर से उतारा, और नादिरशाह की तरफ बना दिया। हाथ कांप रहे थे, पाखों में क्रोध और . विषाद के आंसू भरे हुए थे। मुख पर इलझी सो मुस्किराहट झलक रही थी-वह मुस्किराहट, जो अश्रुपात से भी कहीं अधिक करुण और व्यथा-पूर्ण होती है। कदा- चित् अपने प्राण निकालकर देने में भी उसे इससे अधिक पोदा न होतो। नादिरशाह पहाड़ों और नदियों को लापता हुआ ईरान को चला जा रहा था। ७० ऊँटों और इतनी ही बैंक गाड़ियों का कलार देख-देखकर उसका हृदय यासों उछल रहा था। वह बार बार खुदा को धन्यवाद देता था, जिसकी असीम कृपा ने माज उसको कीर्ति को उज्वल बनाया था। अब यह केवल ईशान हो का बादशाह नहो, हिन्दुस्तान-जैसे विस्तृत प्रदेश का भी स्वामी था। पर सबसे ज्यादा खुशो उसे मुग्रक-माजम हौरा पाने की थी, जिसे पार-मार देखकर भी उसकी आँखें तृप्त न होती। -
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