२६८ मानसरोवर 20 भी पाकर अपने को भाग्यशाली समझता ; परन्तु यह पुरुष जिसने इस धन-राशि का शतांश भी पहले कभी आलों से न देखा होगा, जिसकी उम्र भेड़ें चराने में हो 'गुजरी, क्यों इतना उदासीन है ? आखिर जब रात हुई, बादशाह का खजाना खाली हो गया, और उस रत्न के दर्शन न हुए, तो नादिरशाह की क्रोधाग्नि फिर भड़क उठी। उसने बादशाह के मत्रो को-उसो मत्रो को, जिसको काव्य-मर्मज्ञता ने प्रजा के प्राण बचाये थे-एकान्त में बुलाया, और कहा - मेरा गुस्सा तुम देख चुके हो। मगर "फिर उसे नहीं देखना चाहते, तो लाजिम है कि मेरे साथ कामिक सफाई का परताव करो । बरना अगर दोबारा यह शोला सढ़का, तो दिल्ली को खैरियत नहीं। वीर-~-जहाँपनाह, गुलामों से तो कोई खत्ता सरज़द नहीं हुई। खजाने की सब कुञ्जियाँ जनाबेआली के सिपहसालार के हवाले कर दी गई हैं। नादिर- तुमने मेरे साथ दया को है । कशोर--(त्योरो चढ़ाकर ) आपके हाथ में तलवार है, और हम कमजोर हैं, जो चाहे फरमावें । पर इस इलाम के तसलोम करने में मुझे उन है। नादिर- रच्या उसके सबूत की ज़रूरत है ? वोर-जी हां, क्योंकि दया की सज़ा करक है, और कोई बिला सबब अरने करल पर रखामन्द न होगा। नादिर---इसका सबूत मेरे पास है, हालाकि नादिर ने कभी किसी को सबूत नहीं दिया। वह अपनी मरजी का बादशाह है, और किसो को सबूत देना अपनी -शान के खिलाफ समझता है । पर यहां पर जाती मुआमिला है । तुमने मुगल-आजम होरा क्यों छिपा दिया। वज़ोर के चेहरे का रङ्गा उड़ गया । वह सोचने लगा-यह हीरा बादशाह को बान ने भो ज्यादा अजोल है। वह इसे एक क्षण भी अपने पास से जुश नही करते। उनसे क्यों कर कहूँ ? उन्हें कितना सदमा होगा ! मुल्क गया, खजाना गया, इज्जत गई। बादशाहो को यही एक निशानो उनके पास रह गई है। उनसे कैसे कहूँ ? मुमकिन है, वह गुस्से में आकर इसे कहीं फेंक दें, या तुरवा डालें। इन्सान की आदत है कि वह अपनी चीन दुश्मन को देने की अपेक्षा उसे नष्ट कर देना -अच्छा समझता है। बादशाह, वादशाह है। मुल्क न सही, अधिकार न सहो, सेना न सही ; पर जिन्दगी भर को स्वेक्षाचारिता एकदिन में नहीं मिट सकतो । 3
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