शतरंज के खिलाने २६१ मोर-कम्बख्त कल फिर आने को कह गया है। मिरजा-आनन है, और क्या ! कहो मोरचे पर जाना पड़ा, तो बेमौत मरे । मोर-बस, यही एक तदवोर है कि घर पर मिलो ही नहीं। कल से गोमती पर कहीं नोराने में नक्शा जमे। वहाँ किसे खपर होगा। हसरत आकर मार लौट जायेंगे। मिरजा -वल्लाह, आपको खूब सूझो ! इसके सिवाय और कोई तदबोर हो नहीं है। इधर मोरसाहब की बेगम उस सवार से कह रही थी, तुमने खूप धता बताई। उसने जवाब दिया ऐसे गावदियों को तो चुटकियों पर नवाता हूँ। इनकी सारी साल और हिम्मत तो शतरज ने वर लो । अप भूनकर मो घर पर न रहेंगे। ( ३ ) दूसरे दिन से दोनों मित्र मुँह अंधेरे घर से निकल खड़े होते। बगल में एक छोटो-सी दरी दवाये, डिब्बे में गिलोरिया मो, गोमतो पार को एक पुरानी बोरान मसजिद में चले जाते जिसे शायद नवान आसफउद्दोला ने बनवाया था। रास्ते में तम्बाकू, चिलम और मरिया ले लेने, और मजेद में पहुँच, दरो विछा, हुक्का भाकर शतर म खेजने बैठ जाते थे । फिर उन्हें दोन, दुनिया को फिन न रहतो थो। किश्त शह आदि दो एक शब्दों के सिवा उनके मुंह से और कोई वाक्य नहीं निकलता था। कोई योगो भो समाधि में इतना एकान न होता होगा। दोपहर को जब भूख मालम होतो तो दोनों मित्र कियो नानबाई को दूकान पर लाकर खाना खा आते, और एक चिलम हुक्का पोकर फिर संप्रात्र-क्षेत्र में डट जाते । कभी-कभी तो उन्हें भोजन का भी ख्याल न रहता था। इधर देश को राजनीतिक दशा भयंकर होतो जा रही थी। करनी को फोजें लखनऊ की तरफ बढ़ो चलो भातो थो। शहर में हलचल मची हुई थी। लोग बाळ- बच्चों को लेकर देहातों में साग रहे थे। पर हमारे दोनों खिलापियों को इसको जरा भी फिक न थी। वे घर से भाते तो गलियों में होकर । डर था कि कहीं किसो बाद. शाही मुलाजिम को निगाह न पड़ जाय, जो बेगार में पड़ जाय। हमारों रुपये सालाना को बागोर मुफ्त हो हजम करना चाहते थे। एक दिन दोनों मित्र मसजिद के खंडहर में बैठे हुए शतरन खेल रहे थे।
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