नरकका माग साधारण बुद्धि का आदमी भी समझ सकता है कि फूहड़ पहु बनकर बाहर निकलना अपनी हँसी उड़ाना है, लेकिन आप उसी वक्त न जाने किधर से टपक पड़े और मेरी और तिरस्कार-पूर्ण नेत्रों से देखकर बोले-कहाँ की तैयारी है ? मैंने कह दिया, जरा ठाकुरजी की झाको देखने जाती है। इतना सुनते हो त्योरियां चढ़ाकर बोले- तुम्हारे जाने की कुछ जरूरत नहीं । जो स्त्री अपने पति की सेवा नहीं कर सकती, उसे देवताओं के दर्शन से पुण्य के बदले पाप होता है। मुझसे उड़ने चलो हो । मैं औरतों की नस-नस पहचानता हूँ । ऐसा क्रोध आया कि वस अन क्या कहूँ । उसी दम कपड़े बदल डाले और प्रण कर लिया कि जब कभी दर्शन करने न जाऊँगी। इस अविश्वास का भी कुछ ठिकाना है। न जाने क्या सोचकर रुक गई। उनको घात का जवाम तो यही था कि उसी क्षण घर से चल खड़ी होती, फिर देखती, मेरा क्या कर लेते ! इन्हें मेरे उदास और विमान रहने पर आश्चर्य होता है। मुझे मन में कृतन्न समझते हैं। अपनी समझ में इन्होंने मेरे साथ विवाह करके शायद मुझ पर वड़ा एहसान किया है। इतनी बड़ो जायदाद और इतनी विशाल संपत्ति को स्वामिनी होकर मुझे फूले न समाना चाहिए था, आठौं पहर इनका यश गान करते रहना चाहिए था। मैं यह सब कुछ न करके उलटे और मुंह लटकाये रहती हूँ । कभी-कभी मुझे बेचारे पर दया आती है । यह नहीं समझते कि नारी-जीवन में कोई ऐसी वस्तु भी है जिसे खोकर उसकी आँखों में स्वर्ग भी नरक-तुल्य हो जाता है। ( ५ ) तीन दिन से बीमार हैं। डाक्टर कहते हैं, बचने की कोई आशा नहीं, निमो- निया हो गया है। पर मुझे न जाने क्यों इसका ग्रम नहीं है। मैं इतनी वजहृदया कभी न थी। न जाने वह मेरी कोमलता कहाँ चली गई। किसी बीमार को सूरत देखकर मेरा हृदय करुणा से चचल हो जाता था, मैं किसी का रोना नहीं सुन सकती थी। वही मैं हूँ कि आज तीन दिन से उन्हें अपने बगल के कमरे में पड़े कराहते सुनती हूँ और एक बार भी उन्हें देखने न गई, आँख में आँस आने का जिक्र हो क्या । मुझे ऐसा मालूम होता है, इनसे मेरा कोई नाता हो नहीं। मुझे चाहे कोई पिशाचिनी कहे, चाहे कुलटा, पर मुझे तो यह कहने में लेशमात्र भी सकोच नहीं है कि इनको बीमारी से मुझे एक प्रकार का ईमिय आनन्द आ रहा है। इन्होंने मुझे
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