२५ मानसरोवर बेगम-जाने क्यों नहीं देते है मेरा हो खून पिये, जो उसे रोके । भच्छा, उसे रोका, मुझे रोको तो जानूं ? यह कहकर बेगम साहमा झल्लाई हुई दीवानखाने की तरफ चली । मिरजा बेचारे का रंग उड़ गया । बीबी की मिन्नतें करने लगे-खुदा के लिए, तुम्हें हजरत हुसेन की कसम है। मेरो हो मयत देखे, जो उधर भाय । लेकिन बेगम ने एक न मानी। दीवानखाने के द्वार तक गई ; पर एकाएक पर-पुरुष के सामने जाते हुए पाव बध से गये । भीतर झांका । संयोग से कमरा खालो था। मीरसाहब ने दो-एक मुहरे घर- उधर कर दिये थे, और अपनी सफाई जताने के लिए बाहर टहल रहे थे। फिर क्या था, बेगम ने अन्दर पहुंचकर बाजी उलट दो, मुहरे कुछ तख्त के नीचे फेक दिये, कुछ पाहर ; और किबाड़े अदर से बन्द करके कुंडो लगा दो। मोरसाहा दरवाजे पर तो ये हो, मुहरे बाहर फेके जाते देखे, चूदियों की झनक भी कान में पड़ो। फिर दरवाजा बद हुआ, तो समझ गये, बेगम साहबा बिगड़ गई । चुपके से घर की राह लो। मिरबा ने कहा- तुमने अजय किया । बेगम-अब मीरसाहब इधर आये, तो खड़े-खड़े निकलवा देंगी। इतनी को खुदा से लगाते तो बली हो भाते ! आप तो शतरंज खेलें, और मैं यहाँ चूल्हे-नको की फिक्र में सिर खपाऊं। माते हो हकीम साहब के यहाँ कि अब भो ताम्मुल है। मिरजा घर से निकले, तो हकीम के घर जाने के बदले मौर साहब के पर पहुंचे, और सारा वृत्तांत कहा। मीरसाहब बोले-मैंने तो अब मुहरें बाहर आते देखे, तभी ताड़ गया फ्रोरन् भागा। बड़ो गुस्सेवर मालूम होतो है । मगर आपने उन्हें यो सिर चढ़ा रखा है, यह मुनासिब नहीं। उन्हें इससे क्या मतलब कि आप बाहर क्या करते हैं। घर का इन्तजाम करना उनका काम है ; दूसरो मातो से उन्हें क्या सरोकार ! मिरजा- खेर यह तो बताइए, अब कहां जमाव होगा? 'मौर इसका क्या गम है । इतना बड़ा पर पड़ा हुआ है । बस यहाँ अमे। मिरवा लेकिन बेगम साहमा को कैसे मनाऊँगा? जब घर पर बैठा रहता था, तब तो वह इतना विगतो यो । यहाँ बैठक होगी, तो शायद विदा न छोड़ेंगी। मौर-भो बकने भो दीजिए; दो-चार रोन में आप ही ठीक हो जायेंगी। हा, भाप इतना कोलिए कि आज से परा तन जाइए । 4,
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