ISRI रुपय २४५ लेकिन जातीय कर्तव्य का पक्ष भी निरस्त्र न था। पत्र का सम्पादक परम्परागत नियमों के अनुसार जाति का सेवक है। वह जो कुछ देखता है, जाति को विराट दृष्टि से देखता है। वह जो कुछ विचार करता है, उस पर भी जातीयता की छाप लगी होती है। नित्य जाति के विस्तृत विचार-क्षेत्र में विचरण करते रहने से व्यक्ति का महत्त्व उसकी दृष्टि में अत्यन्त सकोर्ण हो जाता है, वह व्यक्ति को क्षुद, तुच्छ, नगण्य कहने लगता है। व्यक्ति की जाति पर वलि देना उसको नीति का प्रथम अग है। यहाँ तक कि वह बहुधा अपने स्वार्थ को भी जाति पर वार देता है। उसके जीवन का लक्ष्य महान् आत्माओं का अनुगामी होता है, जिन्होंने राष्ट्रों का निर्माण किया है, उनकी कोति अमर हो गई है, जो दलित राष्ट्रों को उद्धारक हो गई है । वह यथाशक्ति कोई काम ऐसा नहीं कर सकता, जिससे उसके पूर्वजों को उज्ज्वल विरुदावली में कालिमा लगने का भय हो। कैलास राजनीतिक क्षेत्र में बहुत कुछ यश और गौरव प्राप्त कर चुका था । उसको सम्मति आदर को दृष्टि से देखी जाती थी। उसके निर्मीक विचारों ने, उसको निष्पक्ष टोकाओं ने उसे सम्रादक- मण्डली का प्रमुख नेता बना दिया था। अतएव इस अवसर पर मैत्री का निर्वाह केवल उसको नीति और आदर्श हो के विरुद्ध नहीं, उसके मनोगत भावों के भी विरुद्ध था। इसमें उसका अपमान था, भात्मपतन था, भोरता थी। यह कर्तव्य-पथ से विमुख होना और राजनीतिक क्षेत्र से सदैव के लिए बहिष्कृत हो जाना था। एक व्यक्ति को, चाहे वह मेरा कितना हो आत्मीय क्यों न हो, राष्ट्र के सामने क्या हस्ती है। नईम के पनने या बिगड़ने से राष्ट्र पर कोई असर न पड़ेगा। लेकिन शासन को निरकुशता और असाचार पर परदा डालना राष्ट्र के लिए भयङ्कर सिद्ध हो सकता है। उसे इसकी परवा न थी कि मेरी आलोचना का प्रत्यक्ष कोई असर होगा या नहीं। सम्पादक को दृष्टि में अपनी सम्मति सिंहनाद के समान प्रतीत होती है। वह कदाचित् समझता है कि मेरी लेखनी शासन को कम्पायमान कर देगी, विश्व को हिला देगी। शायद सारा ससार मेरो कलम को सरसराहट से थर्रा उठेगा, मेरे विचार प्रकट होते हो युगान्तर उपस्थित कर देंगे। नईम मेरा मित्र है, किन्तु राष्ट्र मेरा इष्ट है। मित्र के पद को रक्षा के लिए क्या माने इष्ट पर प्राण- घातक आघात करूँ? कई दिनों तक कैलास के व्यक्तिगत और सम्पादक के कर्तव्यों में संघर्ष होता -
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