मुक्ति-मार्ग २३९ भी उन्हीं में था। सातवें दिन महरो के पैसे लेकर घर आता था, और रात-भर रह- कर सवेरे फिर चला जाता था । घुद्ध भो मजदूरी की टोह में यहाँ पहुँचा। जमादार ने देखा, दुर्बल आदमो है, कठिन काम तो इससे हो न सकेगा, कारीगरों को गारा देने के लिए रख लिया । बुद्धू सिर पर तसला रखे गारा लेने गया, तो झींगुर को देखा। शम-राम' हुई, झोगुर ने गारा भर दिया, बुधू उठा लाया। दिन-भर दोनों चुपचाप अपना-अपना काम करते रहे। सध्या-समय मोंगुर ने पूछा-कुछ बनाओगे न ? वुद्धू-नहीं तो खाऊँगा क्या ? झींगुर-मैं तो एक जून चोना जर लेता हूँ। इस जून सत्त पर काट देता हूँ। कौन कमट करे। बुद्धू-इधर-उधर' लकडियाँ पड़ी हुई हैं, बटोर लाओ। आटा मैं घर से लेता आया हूँ। पर ही पर पिसवा लिया था। यहाँ तो पढ़ा मंहगा मिलता है। इसी पत्थर को चट्टान पर आटा गूंघे लेता हूँ। तुम तो मेरा बनाया खाओगे नहीं, इसलिए तुम्हों रोटियां संको, मैं बना दूंगा। मोगुर -तावा भी तो नहीं है ! बुद्धू-तवे बहुत हैं । यहो गारे का ताला माजे लेता हूँ। आग जली, आटा गूंधा गया। गुर ने कच्ची-पको रोटियां बनाई। बुधू पानी लाया। दोनों ने लाल मिर्च और नमक से रोटियां खाई। फिर चिला भरो गई। दोनों आदमो पत्थर के सिलों पर लेटे, और चिलम पीने लगे। बुद्धू ने कहा-तुम्हारो जस में आग मैंने लगाई थी। झोगुर ने विनोद के भाव से कहा -जानता हूँ। थोड़ी देर के बाद मोगु मोला ---पछिया मैंने ही बाँधो थो, और हरिहर ने उसे कुछ खिला दिया था। बुद्धू ने भी वैसे ही भाव से कहा- जानता हूँ। फिर दोनों सो गये। , }
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