१३६ मानसरावर अपनी भेनों के साथ क्यों नहीं चरा दिया करते। बेचारी खूटे से बँधी-बंधी मरी जाती है । न घास, न चारा, क्या खिलावे ? बुधू-- भैया, मैं गाय भैंस नहीं रखता । चमारों को जानते हो, एक हो इत्यारे होते हैं। इसी हरिहर ने मेरो दो गउर मार डालों। न जाने क्या खिला देता है । तब से कान पकड़े नि-अब गाय-भैध न पालूंगा। लेकिन तुम्हारी एक हो बछिया है, उसका कोई क्या करेगा। जब चाहो, पहुँचा दो। यह कहकर बुद्ध अपने गृहोत्सव का सामान उसे दिखाने लगा। घो, शकर, मैदा, तरकारी सन मंगा रखा था। केवळ सत्यनारायण की कथा को देर थी। झोंगुर, की आँखें खुल गई। ऐसी तैयारी न उसने स्यं कभी को थी, और न किसी को करते देखो थो। मजदूरी करके घर लौटा, तो सबसे पहला काम जो उसने किया, वह अपनी बछिया को बुद्धू के घर पहुँचाना था। उसो रात को बुधू के यहाँ सत्यनारायण की कथा हुई। ब्रह्मान भी किया गया । सारी रात विनों का मागत- स्वागत करते गुजरी । भेड़ों के झुण्ड में जाने का अवकाश ही न मिला। प्रातःकाल भोजन करके उठा ही था (क्योंकि रात का भोजन सबेरे मिला) कि एक आदमी ने आकर खबर दी-बुद्धू, तुम यहाँ बैठे हो, उधर भेदों में बछिया मरी पो है। भले आदमी, उसको पहिया भी नहीं खोली थी ! बुद्धू ने सुना, और मानो ठोकर लग गई । झोपुर भो भोजन करके वहाँ बैठा था। बोला-हाय, मेरी बछिया ! चलो, जरा देखू तो। मैंने तो पगहिया नहीं लगाई थी । उसे भेड़े में पहुँचाकर अपने घर चला गया। तुमने यह पहिया कब लगा दी? बुधू-भगवान् जाने, जो मैंने उसको पहिया देखो भी हो। मैं तो तब से भेदों में गया हो नहीं। भीगुर-जाते न, तो पगहिया कौन लगा देता ? गये होंगे, याद न आती होगी। एक ब्राह्मण-मरी तो भेड़ों में हो न? दुनिया तो यहो कहेगी, वुद्धू की असावधानो से उसको मृत्यु हुई, पहिया किसी की हो। । हरिहर-मैंने कल साँझ को इन्हें भेड़ों में छिया को बाँधते देखा था । बुधू-मुझे। हरिहर ---तुम नहीं लाठो कन्धे पर रखे पछिया को मांध रहे थे ?
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