पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/२३४

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मुक्ति-मार्ग २३३ धनाऊँगा। उसके कारण मेरा सर्वनाश हो गया, और वह चैन को वंशो बजा रहा है। मैं भी उसका सर्वनाश करूँगा ! जिस दिन इस घातक कलह का बीजारोपण हुआ, उसी दिन से बुधू ने इधर आना छोड़ दिया था। हागुर ने उससे रज-पन्त बढ़ाना शुरू ख्यिा । वह जुधू को दिखाना चाहता था कि तुम्हारे ऊपर मुझे बिलकुल संदेह नहीं है। एक दिन काल लेने के बहाने गया, फिर दूध लेने के बहाने जाने लगा। बुधू उसज्ञा खूष आदर- सत्कार करता । चिलम तो आपसी दुश्मन को भी पिला देता है, वह उसे विना दूध और शर्बत पिलाये न आने देता। झोंपुर आजकल एक सन लपेटनेवाली कल में मजदूरी करने जाया करता था। बहुधा कई-कई दिनों की मजदूरी इच्छो मिलतो थो। बुद्ध ही की तत्परता से झींगुर का रोजाना खर्च चलता था। अतएव झीगुर ने खूब रन्त-जन्त पढ़ा लिया । एक दिन बुद्धू ने पूछा-ययों होगुर, अगर अपनो जख जलानेवाले को पा जाओ, तो क्या करो सब कहना। झीगुर ने गम्भीर भाव से कहा-मैं उनसे कहूँ, भैया, तुमने जो कुछ किय , बहुत अच्छा किया। मेरा घमण्ड तोड़ दिया , मुझे आदमो बना दिया । वुद्ध मैं जो तुम्हारी जगह होता, तो बिना उसका घर जलाये न मानता । झींगुर-चार दिन को जिन्दगानी में वैर-विरोध बढ़ाने से क्या फ़ायदा ? मैं तो परबाद हुआ हो, अब उसे वरवाद करके क्या पाऊँगा ? बुद्धू-बस, यही आदमी का धर्म है। पर भाई, क्रोध के वश में होकर बुद्धि उलटी हो जाती है। ( ४ ) फागुन का महीना था। किसान ऊब सोने के लिए खेतों को तैयार कर रहे थे। चुधू का दाज़ार गरम था। भेड़ों की लूट मची हुई थी। दो-चार आदमी नित्य द्वार पर खड़े खुशामदै किया करते । बुधू किसो से सीधे मुँह बात न करता । भेड़ रखने को फोस दुनी कर दी थी। अगर कोई एतराय करता तो बेलाग कहता-तो भैया, भेड़ें तुम्हारे गले तो नहीं लगाता हूँ। जो न चाहे, मत रखो। लेकिन मैंने जो कह दिया है, उससे एक कौड़ी भी कम नहीं हो सकती। गरज थो, लोग इस रुखाई पर भी उसे घेरे ही रहते थे, मानों पण्डे किसी यात्री के पीछे पड़े हों। लक्ष्मी का प्राकार तो बहुत बड़ा नहीं, और वह भी समयानुसार छोटा बड़ा होता . -