वापत्रहालय २२७ > लगा, यह लोग होली नहीं खेलते, तो इनका इतना क्रोधोन्मत्त होना इसके सिवा और क्या बतलाता है कि हमें यह लोग कुत्तों से बेहतर नहीं समझते । इनको अपने प्रभुत्व का कितना घमण्ड है । यह मेरे पीछे हन्टर लेकर दौड़े ! अब विदित हुआ कि यह जो मेरा थोड़ा बहुत सम्मान करते थे, वह केवल धोखा था । मन में यह हमें भव भी नोच और कमीना समझते हैं । लाल रंग कोई बाण नहीं था। हम बड़े दिनों में गिरजे पाते हैं, इन्हे डालियाँ देते हैं। वह हमारा त्यौहार नहीं है । पर, यह जरा सा रंग छोड़ देने पर इतना बिगड़ उठा ! हा! इतना अपमान ! मुझे उसके सामने ताल ठोककर खड़ा हो जाना चाहिए था। भागना कायरता थी। इसी से यह सप शेर हो जाते हैं। कोई सन्देह नहीं कि यह सब हमें मिलाकर असहयोगियों को दबाना चाहते है। इनको यह विनयशीलता और सज्जनता केवल अपना मतलक गांठने के लिए है। इनको निरंकुशता, इनका गर्व वही है, प्ररा भी अन्तर नहीं। सेठजी के हृद्गत भावों ने उप्र रूप धारण किया। मेरी यह अवोगति ! अपने अपमान को याद रह रहकर उनके चित्त को विह्वल कर रही थी। यह मेरे सहयोग का फल है । मैं इसी योग्य हूँ। मैं उनकी सौहार्दपूर्ण बातें सुन-सुन फूला न समाता था। मेरी मन्द बुद्धि को इतना भी न सूझता था कि स्वाधीन और पराधीन में कोई मेल नहीं हो सकता । मैं असहयोगियों को उदासीनता पर हंसता था। अब मालूम हुआ कि वह हास्यास्पद नहीं हैं, मैं स्वयं निन्दनीय हूँ। वह अपने घर न जाकर सीधे काग्रेस कमेटो के कार्यालय की ओर लपके । वहाँ ‘पहुंचे तो एक विराट सभा देखो। कमेटी ने शहर के छूत-अछूत. छोटे-बड़े सबको होली का आनन्द मनाने के लिए निमत्रित किया था। हिन्दू-मुसलमान साथ-साथ बैठे प्रेम से होली खेल रहे थे। फल-भोज का भी प्रबन्ध किया गया था। इस समय व्याख्यान हो रहा था। सेठजी गाड़ी से तो उतरे, पर सभा-स्थल में जाते सकोच होता था। ठिठरते हुए धीरे से जाकर एक ओर खड़े हो गये। उन्हें देखकर लोग चौक पड़े। सब के सब विस्मित होकर उनको ओर ताकने लगे। यह खुशादियों के आचार्य आज यहाँ कैसे भूल पड़े? इन्हें तो किसो सहयोगी सभा में राज-मक्ति का प्रस्ताने पास करना चाहिए था। शायद भेष लेने आये हैं कि ये लोग क्या कर रहे हैं। उन्हें चिढ़ाने के लिए लोगों ने कहा-दास की जय ! उजागरमल ने उच्च स्वर से कहा- असहयोग की जय !
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