विचित्र होली नूरअली यौजा- . होलो का दिन था, मिस्टर ए० बो० कास शिकार खेलने गये हुए थे। साईस, अर्दलो, मेहतर, भिश्तो, ग्वाला, धोबी सम होलो मना रहे थे। सों ने साहब के जावे हो खूप गहरी भग चढ़ाई थी और इस समय पोचे में बैठे हुए होली, फाग गा रहे थे। पर, रह-रहकर बंगले के फाटक को तरफ झांक लेते थे कि साहब मा तो नहीं रहे हैं। इतने में शेख नूरक्षली आकर सामने खड़े हो गये। साईस ने पूछा-कहो खानसामाजी, साहब उष तक अयेंगे ? -उसका जन जी चाहे आये, मेरा आम इस्तोफा है। भर इससी नौकरी न करूंगा। मर्दको ने कहा-ऐसो नौकरी फिर न पाओगे। चार पैसे ऊपर को थामदनी है। नाहक छोरवे हो। नूरभली-अजी, लानत भेजो ! अब मुझसे गुलामी न होगी। यह हमें जूतों से ठुकराये और हन इनको गुलामी करें। आज यहाँ से डेरा कूच है। आओ, तुम लोगों की दावत करूँ । चले आओ कमरे में, आराम से मेस पर डट जाओ, वह बोतले 'पिलाऊँ कि जिगर ठढा हो जाय ? साई-और जो कहों साहप मा जाएं ? नरअलो-यह अभी नहीं थाने का । चले आओ। साहनों के नौकर प्रायः शराबी होते हैं। जिस दिन से साहब के यहां गुलामी लिखाई, उसो दिन से यह भला उनके सिर पड़ जाती है। जय मालिक स्वय बोतल को-बोतल उदल जाता हो, तो भला नौकर क्यों चूछने लगे। यह, निमंत्रण पाकर सप-के-सब खिल उठे। भग का नशा चढ़ा ही हुआ था। ढोल-मजोरे छोड़-छोड़कर नूरअली के साथ चले और पाहा के खाने के कमरे में कुर्सियों पर आ वैठे। नूरमळी ने ह्विस्की की बोतल खोलकर ग्लास भरे और चारों ने चढ़ाना शुरू कर दिया। ठर्रा पौने वालों ने जब यह मजेदार चीजें पाई तो ग्लास पर ग्लास लुढ़ाने लगे। खानसामा , -भी उत्तेजित करता जाता था। जरा देर पषों के सिर फिर गये । भय जाता रहा.
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