सौभाग्य के कोड़े २१७ आदमो ने सकरुण भाव से कहा-खुदावन्द, उनका हाल कुछ न पूछिए, शराब पोफर घर आ रहे थे, रास्ते में बेहोश होकर सड़क पर गिर पड़े। उधर से एक मोटर लारो, आ रही थी ड्राइवर ने देखा नहीं, लारी उनके ऊपर से निकल गई । सुषह को लाश मिली। खुदावन्द, अपने फन में एकता था, अब उसकी मौत से लखनऊ वौरान हो गया, अब ऐसा कोई नहीं रहा जिस पर लखनऊ को धमह हो । नथुवा नाम के एक लड़के को उन्होंने कुछ सिखाया था और उससे हम लोगों को उम्मीद थी कि उस्ताद का नाम पिन्क्षा रखेगा, पर वह यहां से ग्वालियर चला गया, फिर पता नहीं कि कहीं गया। आचार्य महाशय के प्राण सूखे जाते थे कि अब बात खुलो, अब खुली, दम रुका हुआ था जैसे कोई तलवार लिये सिर पर खड़ा हो। वारे, कुशल हुई, घड़ा चोट, खाकर भी बच गया। आचार्य महाशय उस घर में रहते थे, किन्तु उसी तरह जैसे कोई नई बहु अपने ससुराल में नहे। उनके हृदय से पुराने सस्कार न मिटते थे। उनकी आत्मा इस यथार्थ को स्वीकार न करतो कि अय यह मेरा पा है। वह मोर से हंसते तो सहसा चौक पड़ते । मित्रगण आकर शोर मचाते तो भी उन्हें एक अज्ञात शंका होतो थी। लिखने. पढ़ने के कमरे में शायद वह सोते तो उन्हें रात भर नींद न आती, यह रूपाल दिल में जमा हुआ था कि यह पढ़ने-लिखने का कमरा है। बहुत इच्छा होने पर भो वह पुराने सामान को बदल न सकते थे। और रत्ना के शयनागार को तो उन्होंने फिर कभी नहीं खोला। वह ज्यों-का-त्यों बन्द पड़ा रहता था। उसके अन्दर जाते हुए उनके पैर थरथराने लगते थे। उस पलग पर सोने का ध्यान हो उन्हें नहीं आया। लखनऊ में कई बार उन्होंने विश्वविद्यालय में अपने संगीत नपुण्य का चमत्कार दिखाया । किसी राजा-रईस के घर अब वह गाने न जाते थे, चाहे कोई उन्हें लाखों ही क्यों न दे । यह उनका प्रण था। लोग उनका अलौकिक गान सुनकर अलौकिक आनन्द उठाते थे। एक दिन प्रातःकाल आचार्य महाशय संध्या से उठे थे कि राय भोलानाथ उनसे' मिलने आये । रत्ना भी उनके साथ थी। आचार्य महाशय पर रोब छा गया । बड़े-पड़े थोरपी थियेटरों में भी उनका हृदय इतना भयभीत न हुआ था। उन्होंने समान तक
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