नागमसपर - उसकी मां भी उसे देखकर न कह सकती कि यही मेरा नथुवा है। लेकिन उनको कायापट की अपेक्षा नगर को कायापलट और भी विस्मयकारी श्री। यह लखनऊ नहीं, कोई दूसरा ही नगर था। स्टेशन से बाहर निकलते ही देखा कि शहर के कितने ही छोटे बड़े आदमी उनका स्वागत करने को खड़े हैं। उनमें एक युवती रमणो भी थी, जो रत्ना से बहुत मिस्तो थी। लोगों ने उनसे हाथ मिलाया और रत्ना ने उनके गले में फूलों का हार डाल दिया। यह विदेश में भारत का नाम रोशन करने का पुरस्कार था ! भाचार्य के पैर डगमगाने लगे, ऐसा जान पड़ता था, अब नहीं खड़े रह सकते। यह वही रत्ना है। भोली-भाली मालिका ने सौन्दर्य, लज्जा, गई और विनय की देवी का रूप धारण कर लिया है। उनकी हिम्मत न पहो, कि रत्ना की तरफ सोधी माखों देख सकें। लोगों से हाथ मिलाने के बाद वह उस जंगले में आये जो उनके लिए पहले हो से सजाया गया था। उसको देखकर वह चौंक पड़े, यह वही बँगला था जहाँ रत्ना के साथ वह खेलते थे, सामान भो वही था, तस्वीरें वही, कुर्सियां और मेजें वही, शीशे के आलात पही, यहाँ तक कि फर्श भी वही था। उसके अन्दर कदम रखते हुए आचार्य महाशय के हृदय में कुछ वहो भाव जागृत हो रहे थे, जो किसी देवता के मन्दिर में जाकर धर्मपरायण हिन्द के हृदय में होते हैं। वह रत्ना के शयनागार में पहुँचे तो उनके हृदय में ऐसी ऐंठन हुई कि आँसू बहने लगे--यह वही पल्ङ्ग है- वही रिस्तर और वही फर्श ! उन्होंने अधीर होकर पूछा-यह किसका बंगला है ? कम्पनी का मैनेजर साध था, बोला- एक राय भोलानाथ हैं, उन्हों का है। आचार्य-रायसाहब कहाँ गये। मैनेजर-खुदा जाने कहाँ गये। यह बँगला कर्ज को इल्लत में नीलाम हो रहा था, मैंने देखा हमारे थिएटर से करीब है। अधिकारियों से खतकिताबत की और इसे कम्पनी के नाम खरीद लिया, ४० हजार में यह बँगला सामान समेत मिल गया । आचार्य-मुफ्त मिल गया, तुम्हें रायसाहम को कुछ खबर नहीं ? मैनेजर-सुना था कि कहीं तीर्थ करने गये थे, खुदा जाने लौटे या नहीं। भाचार्य महाशय जब शाम को सावधान होकर बैठे तो एक आदमी से पूछा- क्यों जी, उस्तात धूरे का भी कुछ हाल जानते हो, उनका नाम बहुत सुना है।
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