सौभाग्य के कोड़े २१५ मदिरा मांस त्याग दिया, नियमित रूप से सन्ध्योपासना करने लगा। कोई कुलोन ब्राह्मण भो इतना आचार-विचार न करता होगा। नाथूराम तो पहले ही उसका नाम हो चुका था। अब उसका कुछ और सुसस्कार हुआ। वह ना• रा० भाचार्य मशहूर हो गया। साधारणत. लोग 'आचार्य' ही कहा करते थे। राज्य-दरबार से उसे अच्छा वेतन मिलने लगा। १८ वर्ष की आयु में इतनी ख्याति विरले हो किसी गुणी को नसीब होती है। लेकिन ख्याति-प्रेम वह प्यास है, जो भो नहीं बुझती, वह अगस्त ऋषि की भांति सागर को पीकर भी शान्त नहीं होता। महाशय आचार्य ने योरोप को प्रस्थान किया। वह पाश्चात्य सङ्गीत पर भी अधिकृत होना चाहते थे। जर्मनी के सबसे बड़े सझोत-विद्यालय में दाखिल हो गये और पांच वर्षों के निरन्तर परिश्रम और उद्योग के नाद आचार्य की पदवी लेकर इटली की सैर करते हुए ग्वालियर लौट आये और उसके एक ही सप्ताह के बाद मदन कम्पनी ने उन्हें तीन हजार रुपये मासिक वेतन पर अपनी सब शाखाओं का निरीक्षक नियुक्त छिया। वह योरोप जाने के पहले हो हजारों रुपये जमा कर चुके थे। योरोप में भो भोपराओं और नाट्यशालाओं में उनकी खूब आवभगत हुई थी। कभी कभी एक-एक दिन में इतनी आम्दनी हो जातो थो, जितनो यहाँ के बड़े-से-बड़े गवैयाँ को परसों में भी नहीं होती। लखनऊ से विशेप प्रेम होने के कारण उन्होंने वहीं निवास करने का निश्चय किया। (r) आचार्य महाशय खनऊ पहुँचे तो उनका चित्त गद्गद् हो गया। यही उनका बचपन बीता था, यहाँ एक दिन वह अनाथ थे, यही गलियों में कनकौए लूटते फिरते थे, यही आजारों में पैसे मांगते फिरते थे। आह ! यहीं उन पर हण्टरों को मार पड़ी थी जिसके निशान अब तक मने थे। अब यह दाय उन्हें सौभाग्य को रेखाओं से भी प्रिय लगते। यथार्थ में यह कोड़ों को मार उनके लिए शिव का वरदान थी। रायसाहन के प्रति अप उनके दिल में क्रोध या प्रतिकार का लेशमात्र भी न था। उनको बुराइयाँ भुल गई थी, भलाइयां याद रह गई थी ; और रत्ना तो उन्हें क्या जोर वात्सल्य की मूर्ति-सो याद भाती। विपत्ति पुराने घावों को बढ़ाती है, सम्पत्ति उन्हें भर देती है। चासो से उतरे तो उनको छाती धड़क रही थी। वर्ष का बालक २३ वर्ष का जवान, शिक्षित भद्र युवक हो गया था। J १०
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