मोटेराम- ( उछलकर ) नारायण जानता है, यह वाणो अपने रंग में निराली है। भक्ति ने तुम्हारी बुद्धि को चमका दिया है । भला एक बार ललकारकर कहो तो, देखें, कैसे कहते हो। चिन्तामणि ने दोनों कान उँगलियों से बन्द कर लिये और अपनी पूरी शक्ति से चिल्लाकर बोले-न देगा तो चढ़ बैगा। यह नाद ऐसा आकाश भेदो था कि मोटेराम भी सहसा चौंक पड़े। चमगादड़ घपलाकर वृक्षों पर से उड़ गये, कुत्ते मूंकने लगे। मोटेशम-~-मित्र, तुम्हारी वाणो सुनकर मेरा तो कलेजा काप उठा। ऐसी लड- कार कहीं सुनने में नहीं आई, तुम सिंह की भांति गरजते हो । वाणी तो निश्चित हो गई, अम कुछ दूसरी बातें बताता हूँ, कान देकर सुनो। साधुओं की भाषा हमारी छोल बात से अलग होती है। हम किसी को भाप कहते हैं, किसी को तुम । साधु लोग छोटे-बड़े, अमीर-गरीब, बूढ़े जवान, सपको तू कहकर पुकारते है। माई और शाला का सदैव उचित व्यवहार करते रहना । यह भी याद रखो कि सादी हिन्दी कभी मत बोलना । नहीं तो भरम खुल जायगा । टेड़ी हिन्दी चोलनायह कहना कि भाई, मुम्तको कुछ खिला दे, साधुजनों की भाषा में ठोक नहीं है। पका साधु इसी बात को यो कहेगा-माई, मेरे को भोजन करा दे, तेरे को पड़ा धर्म होगा। चिन्ता-मित्र, हम तेरे को कहाँ तक जस गावें। तेरे ने मेरे साथ वड़ा उपकार किया है। यो उपदेश देकर मोटेराम विदा हुए। चिन्तामणिजी आगे बढ़े तो क्या देखते है कि एक गांजे-मांग को दूकान के सामने कई जटाधारी महात्मा बैठे हुए गांजे के दम लगा रहे हैं। चिन्तामणि को देखकर एक महात्मा ने अपनी जयकार खुनाई- चल-चल, जल्दो लेके चल, नहीं तो अभी करता हूँ वेकल । एक दूसरे साधु ने कड़कर कहा-अ-रारा-रा-धम, आय पहुंचे हम, अब क्या है गम। अभी यह कहा भाकाश में गूंज ही रहा था कि तीसरे महात्मा ने गरजकर अपनी वाणो मुनाई-देस बंगाला, जिसको देखा न भाला, चटपट भर दे प्याला । चिन्तामणिजी से अब न रहा गया। उन्होंने भी कड़ककर कहा--न देगा तो चढ़ बंदूंगा।
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