इतने में पण्डित चिन्तामणिजी ने पदार्पण किया। यह पण्डित मो मोटेरामजी के परममित्र थे। हाँ, अवस्था कुछ कम थी और उसी के अनकूल उनको तौद भी कुछ उतनी प्रतिभाशाली न थी। मोटेराम-कहो मित्र, क्या समाचार लाये ? है कहाँ डोल ? चिन्तामणि-डोल नहीं, अपना सिर है। अब वह नसोका हो नही रहा। मोटेराम-घर हो से आ रहे हो ? चिन्तामणि-भाई, हम तो साधू हो जायेंगे। जब इस जीवन में कोई सुख है। नहीं रहा तो जोकर क्या करेंगे? अम यताभो कि आज दिन जब उत्तम पदार्थ न मिले तो कोई क्योंकर जिये। मोटेराम-हाँ माई, भात तो यथार्थ कहते हो। चिन्तामणि-तो अब तुम्हारा किया कुछ न होगा? सास-साफ कहो, हम संन्यास ? . मोटेराम-नही मित्र, घबरामी मत। जानते नहीं हो, बिना मरे स्वर्ग नहीं मिलता। तर माल खाने के लिए कठिन तपस्या करनी पड़ती है, हमारी राय है कि चलो इसो समय गङ्गा-तट पर चले और वहां व्याख्यान दें। कौन जाने किसी सज्जन की आत्मा जागृत हो जाय । चिन्तामणि, पात तो अच्छी है ; चलने चले। दोनों सज्जन उठकर गङ्गाजी की ओर चले, प्रातः काल था। सहसों मनुष्य एन फर रहे थे। कोई पाठ करता था, कितने ही लोग पण्डों की चौकियों पर बैठे तिलक लगा रहे थे। कोई-कोई तो गोलो धोतो ही पहने घर ना रहे थे। देनों महात्माओं को देखते ही चारों तरफ से 'नमस्कार', 'प्रणाम' और 'पाला- मन' को आवाग्ने आने लगी । दोनों मित्र इन अभिवादनों का उत्तर देते गातट पर जा पहुँचे चौर स्नानादि में प्रवृत गये। तत्पश्चात् एक पण्डे को चौकी पर भजन गाने लगे। यह एक ऐसो विचित्र घटना थी कि सेकनों आदमी कौतूहलवश आकर एकत्रित हो गये। जब श्रोताओं को संख्या कई सौ तक पहुँच गई तो पण्डित मोटे- राम गौरव युक्त भाव से बोले- सज्जनो, आपको ज्ञात है कि जब ब्रह्मा ने इस असार ससार की रचना की तो ब्राह्मणों को अपने सुख से निकाला । किसी को इस विषय में शङ्का तो नहीं है।
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/२०३
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