पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/१८६

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दीक्षा १८५ गिलास में बर्फ और सोडावाटर से अलंकृत अरुण-मुखी कामिनो शोभायमान थी , मुँह में पानी भर आया। उस समय सोई मेरा चित्र उतारता, तो लोलुपता के चित्रण में बाजी मार ले जाता । साहम की आँखों में सुखी धो, मुँह पर सुखी थो। एकांत में बैठा पीता और मानसिफ उल्लास को लहर में एक अंग्रेजी गीत गाता शा। कह' वह स्वर्ग का सुख, और कहाँ यह मेरा नरक-भोग ! कई बार प्रश्ल इच्छा हुई कि साहब के पास चलकर एक गिलाव-मागू; पर डर लगता था कि कहीं शराब के बदले ठोकर मिलने लगे, तो यहाँ कोई फरियाद सुननेवाला भी नहीं है। मैं वहाँ तब तक खड़ा रहा, जब तक साहब का भोजन समाप्त न हो गया । मन- चाहे भोजन और सुरा-सेवन के उपरांत उपने खानसामा को मेज साफ करने के लिए बुनाया। खानसामा वहीं मेज़ के नीचे बैठा ऊँघ रहा था। उठा, और पलेट लेकर भाहर निकला, तो मुम्हे देखकर चौंक पड़ा। मैंने शीघ्र ही उसको भाश्वासन दिया - हरो मत, डरो मत, मैं खानसामा ने वश्चित होकर कहा-आप हैं वोळ साहब ! क्या हजूर यहाँ खड़े थे? मैं-हा, जरा देखता था कि ये सज कैसे खाते-पीते हैं। बहुत शराब पोता है। खान० -अजो, कुछ पूछिए मत । दो बोतल दिन-रात में साफ़ कर डालता है। २०) रोज़ की शरारु पो जाता है। दौरे पर चकता है, तो चार दर्जन बोतलों से कम साथ नहीं रखता। मैं-मुझे भी कुछ आदत है ; पर भाज न मिली। खान-तब तो आपको बड़ी तकलीफ हो रही होगी? मैं क्या करूँ, यहाँ तो कोई दुकान भी नहीं। समझता था, जल्दी से मुकद्दमा हो जायगा, घर लौट जाऊँगा । इसी लिए कोई सामान साथ न लिया। खान-मुझे तो अनीम की आदत है। एक दिन न मिले तो बावला हो जाता है। भमल्वाले को चाहे कुछ न मिले, अमल मिल जाय, तो उसे कोई फिक्र नहीं, खाना चाहे तीन दिन में मिले । मैं-वही हाल है भाई, भुगत रहा हूँ। ऐसा मालूम होता है, वदन में जान हो नहीं है। .