लेता था ; अनर्गल बात न करता था ; हल्ला न मचाता था। न मेरे स्वास्थ्य पर हो मदिरा सेवन का कुछ बुरा असर नज़र आता था। बरसात के दिन थे । नदी-नाले बढ़े हुए थे। हुक्काम बरसात में भी दौरे करते है । उन्हें अपने भत्ते से मतलब । प्रजा को कितना कष्ट होता है, इससे उन्हें कुछ सरोकार नहीं । मैं एक मुकदमे में दौरे पर गया। अनुमान किया था कि सन्ध्या तक लौट आउँ गा; मगर नदियों का चहाव-उतार पड़ा, दक्ष बजे पहुंचने के बदले शाम को पहुँचा। जंट साहन मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे । मुकदमा पेश हुआ। लेकिन बहस खतम होते-होते रात नौ बज गये। मैं अपनी हालत क्या कहूँ। जी चाहता था, जंट साहम को नोच ताऊँ। कभी अपने प्रतिपक्षी वकील की दाढ़ी नोचने को जी चाहता था, जिसने घरबस महस को इतना बढ़ाया। कभी जी चाहता था, अपना सिर पोट लू। मुझे सोच लेना चाहिए था कि आज रात को देर हो गई तो ? जट मेरा गुलाम तो है नहीं कि जो मेरो इच्छा हो वही करे। न खड़े रहा माता, न बैठे । छोटे-मोटे पियक्कड़ मेरो दुर्दशा की कल्पना नहीं कर सकते । खैर, नौ बजते बजते मुक्रदमा समाप्त हुआ'। पर अब जाऊँ कहाँ ? बरसात को रात ; कोसों तक आबादी का पता नहीं। घर लौटना कठिन ही नहीं, अस भव । आस-पास भी कोई ऐसा गाव नहीं, जहां वह जोवनी मिल सके । गाव हो भी, तो वहाँ जाय कौन ? वकील कोई थानेदार नहीं कि किसी को बेगार में भेज दे। बड़े संकट में पड़ा हुआ था। मुवक्किल चले गये, दर्शक चले गये, बेगार चले गये । मेरा प्रतिद्वन्द्वी मुसलमान चपरासी के दस्तरखान में शरीक होकर हाक-बंगले के बरामदे में पल रहा। मैं क्या करूँ ? यहाँ तो प्राणान्त सा हो रहा था। वहीं चरामदे में टाद पर बैठा हुआ अपनी किस्मत को रो रहा था ; न नींद ही आती थी कि इस पष्ट को भूल जाऊँ, अपने को उसो की गोद में सौंप दूं। गुस्सा अलबत्ते था कि वह दूसरा वकील कितनी मीठी नींद सो रहा है, मानो ससुराल में सुख-सेज पर सोया हुआ है। इधर तो मेरा यह बुरा हाल था, उधर डाक बंगले में साहब बहादुर गिलास-पर- गिलास चढ़ा रहे थे। शराब के ढालने की मधुर ध्वनि मेरे कानों में आकर चित्त को और भी व्याकुल कर देती थी। मुम्भसे बैठे न रहा गया। धीरे-धीरे चिक के पास गया, और अन्दर झांकने लगा। आह ! कैसा जीवन-प्रद दृश्य था। सफेद बिल्लौर के पर
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