दाक्षा १८१ शामपेन मॅगवाई ; लेमनेड, सोडा, यर्फ, गजक, खमोरा तम्बाकू वगैरह सब सामान मंगवाकर लौस कर दिया । कमरा बहुत बड़ा न था। कानूनी किताबों को आलमारियां स्टवा दी, फर्श बिहवा दिया और शाम को मित्रों का इन्तजार करने लगा, जैसे चिड़िया पल फैलाये बहेलियों को बुला रही हो । मित्रगण एक-एक करके आने लगे। नौ बजते-बनते सब-के-सब आ बिराजे । उनमें कई तो ऐसे थे, जो चुल्लू में उल्लू हो जाते थे। पर कितने ही कुम्भज ऋषि के अनुयायी घे-पूरे समुद्र सोख, तल को पोत गटगटा जायँ, और आँखों में सुखी न आवे । मैंने पोतला, गिलास और गजक की तशतरियां सामने लाकर हखौं। एक महाशय मोले- -यार, पर्फ भौर घोडे धगैर लुत्फ न आवेगा। मैंने उत्तर दिया-मँगवा रखा है, भूल गया था। एक-तो फिर विस्मिल्लाह हो । दुसरा-साको कौन होगा ? मैं-यह खिदमत मेरे सिपुर्द कीजिए । मैंने प्याल्यिा भर-भरार देनी शुरू की, भौर यार लोग पोने लगे। हु-हक का पाहार गर्म हुआ ; अश्लील हास-परिहास को आंधी-सौ चलने लगो; पर मुझे कोई न पूछता था । खूप, अच्छा उल्लू बना । शायद मुझसे कहते हुए सकुचाते हैं । कोई मनाक से भी नहीं दहता, मानो मैं वैष्णव हूँ। इन्हें कैसे इशारा 56 ? पाखिर सोचकर बोला-मैंने तो कभी पोदी नहीं। एक मित्र -क्यो नहीं पी ? ईश्वर के यहां आपको इसका जवाब देना पड़ेगा। दसरा-फरमाइए जनाब, फरमाइए, फरमाइए, क्या जवाब दीजिएगा। मैं ही उसकी तरफ से पूछता हूं-क्यों नहीं पोते ? मैं-अपनी तबीयत, नहीं चाहता। दुसरा--यह तो कोई जवाब नहीं । कोदो देकर वकालत पास की थी क्या ? तीरा-जवार दोनिए, जवाब । दीजिए, दीजिए। आपने समझा क्या है, ईश्वर को थापने ऐसा चैमा एमझ लिया है क्या ? दसरा-क्या आपको कोई धार्मिक सापत्ति है ? मैंने कहा-हो सकता है।
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