दोक्षा १५९ . मन में - , - धक्के खायँ, मगर तमाशा घुसकर देखें' की दशा है । माशक का वस्छ कहाँ, उनकी चौखट छो चूमना, दान को गालियाँ खाना, और अपना-सा मुँह लेकर चले आना। दिन-भर बैठे-बैठे अरुचि हो जातो। मुश्किल से दो चपातियाँ खाता, और कहता-'क्या इन्हीं दो चपातियों के लिए यह सिर परजन और यह दोदा-रेजी है। अरो, खपो, और व्यर्थ के लिए-1' इसके साथ यह अरमान भी था कि अपनो मोटर हो, विशाल भवन हो, थोड़ोसो जमोदारी हो, कुछ रुपये बैंक में हों। पर यह सब हुमा भो, तो मुझे क्या ? सन्तान उनका सुख भोगेगो, मैं तो व्यर्थ हो मरा । मैं तो खजाने का साँप ही रहा। नहीं, यह नहीं हो सकता। मैं दूसरों के लिए हो प्राण न दूंगा; अग्नी मिइनत का मजा खुद भो चलूगा । क्या करूँ ! कहीं सैर करने चल* १ नहीं, मुवक्किल सल तितर-बितर हो जायेंगे। ऐसा नामी वकील तो हूँ नहीं कि मेरे बगैर काम हो न चले, और कतिपय नेताओं को भांति असहयोग व्रत धारण करने पर भी कोई वदा शिकार देण्, तो झपट पडूं । यहाँ तो पिद्दो, वटेर, हारिल इन्हीं सम पर निशाना मारना है। फिर क्या रोज थिएटर पाया करूँ ? फिजूल है। वहीं दो बजे रात को सोना नसीब होगा, बिना मौत मर जाऊंगा। आखिर मेरे हमपेशा गौर भी तो हैं ? वे क्या करते है, जो उन्हें परापर खुश और मस्त देखता हूँ १ माल म होता है, उन्हें कोई चिन्ता हो नहीं है। स्वार्थ-सेवा अंग्रेजी-शिक्ष, का प्राण है। पूर्व सन्तान के लिए, यश के लिए, धर्म के लिए मरता है। पश्चिम अपने लिए । पूर्व में घर का स्वामो समका सेवक होता है। वह सबसे ज्यादा काम करता, दूसरों को खिलाकर खाता, दूसरों को पहनाकर पहनता है ; शिन्तु पश्चिम में वह सबसे अच्छा खाना, अच्छा पहनना अपना अधिकार समझता है। यहाँ परिवार सर्वोपरि है, वहाँ व्यक्ति सर्वोपरि है। हम बाहर से पूर्व भौर भीतर से पश्चिम है। हमारे सत् आदर्श दिन दिन लुम होते जा रहे हैं। मैंने सोचना शुरू किया, इतने दिनों को तपस्या से मुझे क्या मिल गया ? दिन-भर छातो फाड़कर काम करता हूँ, आधी रात को मुंह ढापकर सो रहता हूँ। यह भी कोई ज़िन्दगी है ? कोई सुख नहीं, मनोरजन का कोई सामान नहीं, दिन-भर काम करने के बाद टेनिस क्या खाइ खेलूगा ? इवाखोरी के लिए भो तो पैरों में जूता चाहिए। ऐसे जोवन को रममय मनाने के लिए केवल एक हो उसय है-आत्मविस्मृति, लो एक क्षण के लिए मुझे ससार को चिन्ताओं से मुक्त का दे, में अपनो परिस्थिति को भूल जाऊँ, । . . ?
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