दीक्षा जम मैं स्कूल में पढ़ता था, गेंद खेलता था, और अध्यापक महोदयों को घुइकियाँ खाता था, अर्थात् जब मेरो किशोरावस्था थी, न ज्ञान का उदय हुआ था और न बुद्धि का विकास, उस समय मैं टेंपरेंस एसोसिएशन ( नशा-निवारणो-समा) का उत्साही सदस्य था। नित्य, उसके जलसे में शरीक होता, उसके लिए चदा वसूल करता। इतना ही नहीं, व्रतधारी भी था, और इस व्रत के पालन का अटल सझल्प कर चुका था। प्रधान महोदय ने मेरे योक्षा लेते समय जन पूछा-'तुम्हें विश्वास है कि जीवन- पर्यन्त इस व्रत पर अटल रहोगे ?', तो मैंने निश्श भाव से उत्तर दिया-'हा, मुझे पूर्ण विश्वास है ।' प्रधान ने मुसकिराकर प्रतिज्ञा-पत्र मेरे सामने रख दिया । उस दिन मुझे कितना आनन्द हुआ था! गौरव से सिर उठाये घूपता फिरता था। कई । धार पिताजी से भी बेअदबो कर बैठा, क्योंकि वह सध्या समय थकन मिटाने के लिए एक गिलास पो लिया करते थे। मुझे कितना असह्य था। कहूँगा ईमान की। पिताजी ऐष करते थे, पर हुनर के साथ । ज्योहो जरा-सा सकर आ जाता, आँखों में मुखर्जी को आमा मलने लगतो कि ब्यालू करने बैठ जाते-बहुत हो सूक्ष्माहारी थे. और फिर रात-भर के लिए माया मोह के बन्धनों से मुक्त हो जाते। मैं उन्हें उपदेश देता था ! उनसे वाद-विवाद करने पर उतारू हो जाता था। एक बार तो मैंने गजम छर डाला था। उनकी बोतल और गिलास को पत्थर पर इतनी ओर से पटका कि भगवान् कृष्ण ने कस को भी इतनी जोर से न पटका होगा। घर में कांच के टुकड़े फैल गये, और कई दिनों तक नग्न चरणो से फिरनेवाली स्त्रियों के पैरों से खून बहा । घर मेरा उत्साह तो देखिए। पिता की तीव्र दृष्टि को भी परवा न की। पिताजी ने भाकर अपनी सञ्जीवन प्रदायिनी बोतल का यह शोक-समाचार सुना, तो मोघे गाजार गये, और एक क्षण में ताक के शून्य-स्थान को फिर पूर्ति हो गई । मैं देवासुर-समास के लिए कमर कसे बैठा था , मगर पिताजी के मुख पर लेश-मात्र भी मैल न आया । उन्होंने मेरी ओर उत्साह-पूर्ण दृष्टि से देखा- मुझे मालूम होता है कि वह आत्मोल्लास, विशुद्ध सत्कामना, और अलौकिक स्नेह से परिपूर्ण थी-और मुसकिरा १२
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