मुक्तिधन १७३ . अवको ज्योंही गुड़ के रुपये हाथ में आये, सब के सन ले जाकर लाला भाऊदयाल के कदमों पर रख देगा अगर वह इसमें से खुद दो-चार रुपये निकालकर देंगे तो ले लँगा, नहीं तो अवलो साल और चूनी-चोकर खाकर चाट हुँगा। मगर भाग्य के लिखे को कौन मिटा सकता है ? अगहन का महीना था; रहमान खेत की मेड़ पर बैठ रखवाली कर रहा था। भोढ़ने को केवल एक प्लरानी गाढ़े की चादर थी, इसलिए ऊख के पत्ते जला दिये थे । सहसा हवा का एक ऐसा झोका भाया कि जलते हुल पत्ते उड़कर खेत में जा पहुँचे । आग ला गई। गांव के लोग आग बुझाने दौड़े, मगर आग की लपटें टूटते हुए तारों की भांति खेत के एक हिस्से से उड़कर दूसरे सिरे पर जा पहुंचती थीं, सारे उपाय व्यर्थ हुए । पूरा खेत जलकर राख का ढेर हो गया। और, खेत के साथ हो रहमान को सारी अभिलाषाएँ भी नट-भ्रष्ट हो गई। अशेष की कमर टूट गई । दिल बैठ गया। हाथ-पांव ढीले हो गये । परोसी हुई थाली सामने से छिन गई । घर आया, तो दाऊदयाल के रुपयों को फिक्र सिर पर सवार हुई । अपनी कुछ फिक्र न थी। बाल बच्चों को भी फिक्र न थी। भूखों भरना मोर नंगे रहना तो किसान का काम ही है । फिक्र थी कर्ज को । दसरा साल बीत रहा है। दो-चार दिन में लाला दाऊदयाल का आदमी आता होगा। उसे कौन मुँह दिखा- ऊँगा ? चलकर उन्हीं से चिरौरी कीं कि साल भर की मुहलत और दीजिए । लेकिन साल-भर में तो सात सौ के नौ सौ हो जायेंगे । कहाँ नालिश कर दी, तो हज़ार हो समझो। साल भर में ऐसी क्या हुन घरस जायगो। बेचारे कितने भले आपमो हैं, दो सौ रुपये उठाकर दे दिये । खेत भो तो ऐसे नहीं कि क्य-रेहन करके आबरू बचाऊँ । धैल भो ऐसे कोन से तैयार है कि दो-चार सौ मिल जायें । माघे भो तो. नहीं रहे । अथ इज्जत खुदा के हाथ है। मैं तो अपनो-खो करके देख चुका । सुबह का वक था । वह अपने खेत की मेड़ पर खड़ा अपनी तबाही का दृश्य देख रहा था। देखा, दाऊदयाल का चपरासी कंधे पर लट्ठ रखे चला आ रहा है। प्राण सूख गये। खुदा, अब तू ही हस्त मुश्किल को आसान कर। कही आवे-ही-आते गालियों न देने लगे। या मेरे अल्लाह ! कहाँ छिप नाऊँ ? चपरासी ने समीप आकर कहा-रुपये लेकर देना नहीं जानते? मियाद कल गुजर गई। जानते हो न सरकार को ? एक दिन को भी देर हुई, और उन्होंने नाशिश ठोंकी । बेभाव की पड़ेगी।
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