मुक्तिधन - भारतवर्ष में जितने व्यवसाय है, उन सबमें लेन देन का व्यवसाय सबसे लाभ- दायक है। आम तौर पर सूद की दर २५) सैकका सालाना है। प्रचुर स्थावर या जंगम सपत्ति पर १२) सैकड़ा सालाना सूद लिया जाता है। इससे कम ब्याज पर रुपया मिलना प्रायः असंभव है। बहुत कम ऐसे व्यवसाय हैं, जिनमें १५ सैकड़े से अधिक लाभ हो और वह भी बिना किसी मस्ट के। उस पर नजराने की रकम अलग, लिखाई मलग, दलाली अलग, अदालत का खर्चा अलग-। ये सब रकमें भी किसी-न-किसी तरह महाजन ही की जेब में जाती है। यही कारण है कि यहाँ लेन- देन का धन्धा इतनी तरको पर है। वकील, डाक्टर, सरकारी कर्मचारी, जमादार, कोई भी, जिसके पास कुछ फाजतू धन हो, यह व्यवसाय कर सकता है । अपनी पूंजी के सदुपयोग का यह सर्वोत्तम साधन है । लाला दाऊदयाल भी इसी श्रेणी के महाजन थे। वह कचहरी में मुख्तारगिरी करते थे, और जो कुछ बचत होतो थी, उसे २५. ३० रुपये सैकमा वार्षिक ब्याज पर उठा देते थे। उनका व्यवहार अधिकतर निम्न श्रेणी के मनुष्यों से हो रहता था । उच्च वर्णवालों से वह चौंकते रहते थे, उन अपने यहां फटकने हो न देते थे। उनका कहना था (और प्रत्येक व्यवसायो पुरुष उसका समर्थन करता है। )कि ब्राह्मण, क्षत्रिय या कायस्थ को रुपये देने से यह कहीं अच्छा है कि रुपया कुर में डाल दिया जाय । इनके पास रुपये लेते समय तो अतुस सपत्ति होती है, लेकिन रुपये हाथ में आते ही वह सारी संपत्ति गायब हो जाती है। उस पर पत्नी, पुत्र या भाई का अधिकार हो जाता है। अपवा यह प्रकट होता है कि उस संपत्ति का अस्तित्व हो न था। इनको कानुनी व्यवस्थाओं के सामने बड़े-बड़े नोति. शास्त्र के विद्वान् भी मुंह की खा जा जाते हैं। लाला दाऊदयाल एक दिन कचहरो से घर आ रहे थे। रास्ते में उन्होंने एक विचित्र घटना देखी। एक मुसलमान खड़ा अपनी गऊ बेच रहा था, और कई भादमी उसे घेरे,खड़े थे। कोई उसके हाथ में रुपये रखे देता था, कोई उसके हाथ से गज की पगहिया छीनने की चेष्टा करता था; किन्तु वह परीष मुसलमान एक बार उन
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