पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/१५७

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मानसरोवर लैला ने दीनता-पूर्ण नेत्रों से देखकर कहा-ज़रा ठहर जाइए, पहले इन लोगों से पूछिए कि चाहते क्या है। यह आदेश पाते हो नादित पर चढ़ गया, लैला भी उसके पीछे-पीछे अर मा पहुँची। दोनों अब जनता के सम्मुख आकर खड़े हो गये। मशालों के प्रकाश में लोगों ने इन दोनों को छत पर खड़े देखा, मानों आशे से देवता उतर आये हो। सहस्रों कण्ठों से ध्वनि निकली-यह खही है, वह खड़ी है, लैला वह खड़ो है। यह वह जनता यो जो लैला के मधुर सङ्गीत पर मरत हो जाया करती था। नादिर ने उच्च स्वर से विद्रोहियों को सम्बोधित किया-ऐ ईरान की बदनसीब रिमाया । तुमने शाही महल को-क्यों घेर रखा है। क्यों बगावल का झण्डा खड़ा किया है ? क्या तुमको मेरा और अपने खुदा का बिलकुल खौफ़ नहीं ? क्या तुम नहीं जानते कि मैं अपनी भाषा के एक इशारे से तुम्हारी हत्ती को खाक में मिला सकता हूँ ? मैं तुम्हें हुकाम देता हूँ कि एक जहमे के अन्दर यहाँ से चले जाओ, धनना फलामेपास की कसम, तुम्हारे खून को नदी बहा दूंगा। एक आदमी ने, जो विद्रोहियों का नेता मालूम होता था, सामने आकर कहा- हम उस वक्त तक न जायेंगे, ' जन तक शाही महल लैला से खालो न हो . - जायगा। नाहिर ने गिरकर कहा-ओ नाशुक्रो, खुदा से डरो, तुम्हें अपनी मलका को -शान में ऐसी वेअधो करते हुए शर्म नहीं आती । जब से लैला तुम्हारी मलका हुई है, उसने तुम्हारे साथ कितनी रिआयते को है ! क्या उन्हें तुम बिलकुल भूल गये ? जालिमो, वह मलका है, पर वही खाना खाती है, जो तुम कुत्तों को खिला देते हो, वही कपड़े पहनती है, जो तुम फ़कीरों को दे देते हो। आकर महलसरा में देखो, तुम इसे अपने झोपड़ों ही की तरह तकल्लुफ और सजावट हे खाली पाओगे । लैला तुम्हारी मलका होकर भी फकीरों को जिन्दगी बसर करती है, तुम्हारी खिदमत में हमेशा मस्त रहती है। तुम्हें उसके कदमों की खाक माथे पर लगानी चाहिए, 'खों का सुरमा बनाना चाहिए। ईरान के तख्त पर कभी ऐसो गरोगों पर जान देनेवाली, उनके दर्द में शरीक होनेवालो, गरीबों पर अपने को निसार करनेवाली मलका ने कदम नहीं रखे, और उसकी शान में तुम ऐसो बेहदा बातें करते हो ? अफसेस ! मुझे मालूम हो गया कि तुम माहिल, इन्सानियत से खाली और कमीने