लैला १५३ .. जो लैला को पहले सरित करती रहती थीं। नादिर राजसत्ता का बलोल या, लैला प्रजासत्ता की, लेकिन व्यावहारिक रूप से उनमें कोई भेद न पड़ता था; कभी यह दव 'जाता, कभी वह हट जातो । उनका दांपत्य जीवन आदर्श था। नादिर लैला का रुख देखता था, लैला नादिर का । काम से अवाश मिलता तो दोनों बैठकर कभी गाते. बजाते, कभी नदियों की सैर करते, कभी किसो वृक्ष की छाँह में बैठे हुए हाफिन की गजलें पढ़दे और कूमते । न लैला में अब उतनो सादगी यो, न नादिर में उतना तकल्लुफ था। नादिर का लैला पर एकाधिपत्य था, जो साधारण बात थी, लेकिन लैला का नादिर पर भी एकाधिपत्य था और यह असाधारण बात थी । जहाँ बादशाहों के महलसरा में बेगमों के मुहल्ले असते थे, दरजनों और कोड़ियों से उनकी गणना होती थी, वहाँ लैला अकेली थी। उन महलों में अब शफाखाने, मदरसे और पुस्त- कालय थे। जहाँ महलसरा का वार्षिक व्यय करोड़ तक पहुँचता था, वहाँ अब हजारों से आगे न बढ़ता था। शेष रुपये प्रजा-हित के कामों में खर्च कर दिये जाते थे। यह सारी कतर-ब्यात लैला ने को यो। बादशाह नादिर था, पर अख्तियार लैला के हाथो में था। सम कुछ था, किन्तु प्रमा सन्तुष्ट न थी। उसका असन्तोष दिन दिन बढ़ता जाता था। राजसत्तावादियों को मय था कि अगर यही हाल रहा तो बादशाहत के सिट जाने में सन्देह नहीं । जमशेद का लगाया हुआ वृक्ष, जिसने हज़ारों सदियों से आँधी और तूफान का मुकागला किया, अब एक हँसोन के नाजुक, पर कातिल हाथों जड़ से उखा जा रहा है। उधर प्रजा-सत्तावादियों को लैला से जितनो आशाएँ थीं, सभी दुराशाएँ सिद्ध हो रही थी। वे बहते, लगर ईरान इस चाल से तरको के रास्ते पर चलेगा तो इससे पहले की वह अपने मजिले मकसूद पर पहुँचे, कयामत था जायगो । दुनिया हवाई जहाज पर बैठी उड़ी जा रही है। और हम अभी ठेले पर पठते भी करते हैं कि कहीं इसकी हरकत से दुनिया में भूचाल न आ जाय । दोनों दलों में आये दिन लड़ाइयाँ होती रहती थी । न नादिर के समझाने का असा अमीरों पर होता था, न लैला के समझाने का रोबो पर। सामन्त नादिर के खून के प्यासे हो गये, प्रजा लैला की जानी दुश्मन । । राज्य में तो यह अशान्ती फैली हुई थी, विद्रोह भाग दिलों में सुलग रही
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