लैला 7 नादिर इन्कार न कर सका। आज उसे बाजरे को रोटिया में अभूतपूर्व स्वाद मिला। वह सोन्द रहा था कि विश्व के इस विशाल भवन में कितना आनन्द है। उसे अपनी आत्मा में विकास का अनुभव हो रहा था। जय वह खा चुका तब लैला ने कहा-अम जाभो। गाधी रात से ज्यादा गुजर गई। नादिर ने आंखों में आंसू भरकर कहा-नहीं लैला, अब मेरा भासत मी यही जमेगा। नादिर दिन-भर लैला के नगमे सुनता ; गलियों में, सड़कों पर, जहाँ वह जाती, उसके पीछे-पीछे घूमता रहता । रात को उसो पेड़ के नीचे जाकर पढ़ रहता। बादशाह ने समकाया, मलका ने समझाया, उारा ने मिन्नते की, लेकिन नादिर के सिर खे लैला का सौदा न गया। जिन हालों लैला रहती थी उन हालौं वह भी रहता था। मलका उसके लिए अच्छे से-अच्छे खाने बनवाकर भेजतो, लेकिन नादिर उनको और देखता भी न था। लेकिन लैला के सात में भब वह सुधा न थी। वह टूटे हुए तारों का राग था, जिसमें न वह लौच था, न वह जाय, न वह असर । वह अब भी गातो धी, सुनने. वाले अब भी भाते थे, लेधिन भव वह अपना दिल खुश करने को नहीं, उनका दिला खुश करने को गाती थी, और सुननेवाले दिहल होकर नहीं, उसको खुश करने के लिए आते थे। इस तरह ६ महीने गुमर गये। एक दिन लैला गाने न गई। नादिर ने कहा-क्यों लैला, आज गाने न चलोगो? लैला ने कहा-अम कभी न गाऊँगी। सच कहना, तुम्हें अब भी मेरे गाने में पहले हो छा-सा मजा आता नादिर बोला-पहले से कहीं ज्यादा । लैला-लेकिन और लोग तो अब नहीं पसन्द करते। नादिर-हाँ, मुझे इसका ताज्जुप है। लैला- ताज्जुब की बात नहीं । पहले मेरा दिल खुला हुआ था, उसमें सबके लिए जगह थी, वह सनको खुश कर सकता था। इसमें से जो भावाला निकलती थी वह ho he
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