धिकार ईरान और यूनान में घोर संग्राम हो रहा था। ईरानी दिन-दिन बढ़ते जाते थे और यूनान के लिए संकट का सामना था। देश के सारे व्यवसाय बन्द हो गये थे, हल की मुठिया पर हाथ रखनेवाले किसान तलवार को मुठिया पकड़ने के लिए मज- बूर हो गये थे, डंडी तौलनेवाले भाले तौलते थे । सारा देश आत्म-रक्षा के लिए तैयार हो गया था। फिर भी शत्रु के कदम दिन-दिन आगे हो बढ़ते आते थे। जिस ईरान को यूनान कई बार कुचल चुका था, वही ईरान आज क्रोध के आवेग को भांति सिर पर चढ़ा आता था। मर्द तो रणक्षेत्र में सिर कटा रहे थे और स्त्रियाँ दिन-दिन श्री निराशाजनक खबरें सुनकर सूखी जाती थी। क्यों डर लाज की रक्षा होगो? प्राण का भय न था, सम्पत्ति का भय न था, भय था मर्यादा का। विजेता गर्व से मतवाले होकर यूनानी ललनाओं को ओर घूरेंगे, उनके कोमल भहों को सर्श करेंगे, उनको कैद कर ले जायेंगे ! उस विपत्ति की कल्पना हो से इन लोगों के रोएँ खड़े हो जाते थे। ? आखिर जब हालत बहुत नाजुक हो गई तो कितने ही स्त्री-पुरुष मिलकर डेल्फ्रो के मन्दिर में गये और प्रश्न किया-देवी, हमारे ऊपर देवतों की यह वक्र दृष्टि क्यों है ? हमसे ऐसा कौन-सा अपराध हुआ है ? क्या हमने नियमों का पालन नहीं किया, कुरवानियां नहीं की, व्रत नहीं रखे ? फिर देवतों ने क्यों हमारे सिरों से अपनी रक्षा का हाथ उठा लिया है ? पुजारिन ने कहा-देवतों को असीम कृपा भो देश को द्रोही के हाथ से नहीं बजा सकती। इस देश में अवश्य कोई-न-कोई द्रोही है। जब तक उसका बध न किया जायगा, देश के सिर से यह संकट न टलेगा। 'देवी, वह द्रोही कौन है ? 'जिस घर से रात को गाने की धनि आती हो, जिस घर से दिन को सुगन्ध की लपटें आती हो, जिस पुरुष को आँखों में मद की लाली मलकती हो वही देश का द्रोही है।'
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