१३८ मानसरोवर उठाकर खाने लगी । जब तश्तरो खालो हो गई तो बोली -अब किसके यहाँ सन्देशा मेजोगे? 1 - सिनहा-किसके यहां बताऊँ । मेरो खमा में तो भग कोई ऐसा आदमो नहीं रह गया। ऐसी बिरादरी में रहने से तो यह हजार दरजा अच्छा है कि बिरादरी के बाहर रहूँ। मैंने एक ब्राह्मण से रिशवत ली । इससे मुझे इनकार नहीं। लेकिन कौन रिशक्त नहीं लेता। अपने गौं पर कोई नहीं चुकता । ब्राह्मण नहीं, खुद ईश्वर ही क्यों न हो, विशवत खानेवाले उन्हें भी चूस ही लेंगे। रिशवत देनेवाला भगर निराश होकर अपने प्राण दे देता है तो मेरा क्या अपराध ? अगर कोई मेरे फैसले से नाराज होकर जहर खा ले तो मैं क्या कर सकता हूँ। इस पर भी मैं प्रायश्चित्त करने को तैयार हूँ। बिरादरी जो दण्ड दे, उसे स्वीकार करने को तैयार हूँ। सबसे कह चुका हूँ, मुम्हसे जो प्रायश्चित्त चाहो, करा लो। पर कोई नहीं सुतता । दण्ड अपराध के अनुकूल होना चाहिए, नहीं तो यह अन्याय है । अगर किसी मुसलमान का छुआ हुआ भोजन खाने के लिए बिरादरी मुझे काले पानी भेजना चाहे तो मैं उछे कभी न मानूंगा। फिर अपराध भगर है, तो मेरा है। मेरी लड़की ने क्या अपराध किया है ? मेरे अपराध के लिए मेरी लड़की को दण्ड देना सराधर न्याय-विरुद्ध है। पत्नी-मगर करोगे क्या ? कोई पचायत क्यों नहीं करते ? सिनहा-पंचायत में भी तो वही बिगदरी के मुखिया लोग ही होंगे, उनसे मुझे न्याय को आशा नहीं । वास्तव में इस तिरस्कार का कारण ईष्र्या है । मुझे देखकर सब चलते हैं और इसी बहाने से मुझे नीचा दिखाना चाहते हैं। मैं इन लोगों को म समझता हूँ। पली -मन की लालसा मन ही में रह गई। यह अरमान लिये संसार से जाना पड़ेगा । भगवान् की जैसी इच्छा । तुम्हारी बातों से मुझे डर लगता है कि मेरी बच्ची को न जाने क्या दशा होगी। मगर तुमसे मेरी अन्तिम विनय यही है कि बिरादरी से बाहर न जाना, नहीं तो परलोक में भी मेरी आत्मा को शान्ति न मिलेगी। यही शोक मेरी जान ले रहा है। हाय, मेरो बच्चो पर न जाने क्या विपत्ति आनेवाली है। यह कहते मिसेज सिनहा को अखिों से भासू बहने लगे। मिस्टर सिनहा ने उनको दिलासा देते हुए कहा-इसको चिन्ता मत करो प्रिये, मेरा आशय केवल यह
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